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कर लिये थे। तब अंजना ने यही विचार तो किया था कि-जब संसार में सहायता के सारे द्वार बन्द हो जाते हैं तब भी धर्म का द्वार सभी जीवों के लिए खुला रहता है। वह कभी किसी के लिए बन्द नहीं होता। धर्म की शरण में जीव का कल्याण है। मुझे भी उसी की शरण में जाना चाहिए। __अभी तक मैं जीवन की परिधि में ही सोचा करती थी, बन्दीगृह में मुझे पहली बार मरण-विज्ञान का बोध हुआ। वह अवसर न मिलता तो संसार-देह और भोगों से आसक्ति टूटना सम्भव नहीं था। जन्मान्तर से मन में बसी वासनाओं का मूलोच्छेद सहज-शक्य नहीं होता। ____ भद्रा सेठानी ने अस्थिर चित्तवाली दुर्बल, आतंकित और सन्तप्त जिस चन्दना को बन्दीगृह में डाला था, वह अबला वहीं विलीन हो गयी थी। महावीर के चरणानुराग से बँधी, बन्दीगृह से बाहर आनेवाली मैं, वह पहले वाली दुर्बल चन्दना नहीं थी। अब मैं दृढ़-संकल्पित और प्रभु-शरणागत, सर्वथा नवीन, एक दूसरी ही चन्दना थी। मेरी सारी दुर्बलताएँ वहाँ गल गयी थीं, सारे आतंक जल गये थे। मानसिक सन्ताप का मेरे अन्तर में कोई चिह्न भी अब शेष नहीं था।
सच मानो दीदी ! उस तलघर में तुम्हारी चन्दन का नया जन्म हुआ। वहीं मैंने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया, और भविष्य की दिशा भी सुनिश्चत कर ली। वहाँ एक ही मन्त्र मेरी साँसों में अहर्निश गूंजता था
_ 'साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलीपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि।'
चन्दना :: 55