Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 61
________________ कोटर से बाहर नहीं निकलते। कृपासिन्धु स्वामी के स्वागत की प्रतीक्षा में, जाने अब तक किस कोने में छिपे थे ? पीड़ित की पुकार ने योगी को बाँध लिया, महामुनि का दासी पर पुनः दृष्टिपात हुआ। मेरी सद्य-सज्जा विधि के अनुरूप रही होगी, मैं मुण्डित केशा, मलिन मुखी, एक पग बन्धन में, दूसरा स्वतन्त्र। एक नयन उल्लसित, दूसरे में अश्रु, माटी के सकोरे में कोदों का भात, आवाहन मुद्रा में उठे हुए हाथ। लौटे करुणानिधान और...मुझ दुखिया के ...सामने...ठहर गये। प्रदक्षिणा देने चली तब ध्यान गया दीदी ! जाने क्या चमत्कार घटित हो गया था, मेरा पैर बन्धन से मुक्त, मैं स्वतन्त्र थी, मस्तक पर दीर्घ केश लहरा रहे थे। सद्यःस्नाता-सी निर्मल, दिव्य वस्त्रों में सजी, सकोरे के स्थान पर स्वर्ण पात्र लिये हुए प्रभु के सामने खड़ी मैं उनकी अंजुरी में ग्रास दे रही थी। प्रभु आगमन से यह सब घटित हुआ ? या अतिशय ही उनके पधारने का हेतु बना ? या दोनों घटनाएँ साथ-साथ घटती गयीं ? बताना कठिन है, पर इतना कह सकती हूँभक्ति में अचिन्त्य-अपार शक्ति होती है। आहार सम्पन्न होने में समय नहीं लगा। मैंने संकल्प साकार करने में भी विलम्ब नहीं किया। 60 :: चन्दना

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