Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 62
________________ संघ की शरण में स्वयं को समर्पित कर, जिस क्षण मैंने महावीर का आशीर्वाद पाया, वही मेरे जीवन का सर्वोत्तम क्षण था। 'बड़े अन्तराल से वर्धमान महामुनि की पारणा हुई है' धरा से गगन तक हर्ष फैल गया। वायु सुरभित हो उठी, नभ से पुष्प बरसने लगे। यह सुयोग पाकर मैं कृतकृत्य हो गयी। मेरा जीवन सफल हो गया। लोग मेरे भाग्य को सराहते, प्रशंसा करने लगे। क्षण भर में जन-समूह एकत्रित होने लगा। इसी बीच मैंने तुम्हें भी वहाँ देखा। दीदी ! तुम्हारा मान रखने को मैंने सारा मनोगत व्यक्त कर दिया। स्मृतियों को शब्दों में बाँधकर तुम्हें सौंप दिया। अन्त में कौशाम्बी की महारानी से अनुनय हैइन घटनाओं में किसी को दोषी न माना जाए, किसी को दण्डित / प्रताड़ित न होना पड़े। शुभाशुभ दोनों ही कर्मों के कौतुक हैं, अन्य सब निमित्त हैं, किसी का कुछ दोष नहीं। कर्म-फल भोगने को हम सब विवश हैं, मैंने भी अपना ही कर्मोदय भोगा है। बसन्तमित्र-मनोवेगा, भील और भीलनी, भद्रा और वृषभदत्त, केवल निमित्त हैं, उनका अपराध नहीं। भील कौशाम्बी नहीं लाता तो वन में मरण निश्चित था। दुर्लभ पर्याय ही निरर्थक हो जाती। चन्दना :: 61

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