Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 58
________________ क्या आज भी निराहार लौटेंगे कौशाम्बी के राजपथ से ? क्या उनकी एक झलक पा सकूँगी आज ?' नहीं, कल्पना के आकाश और यथार्थ की धरा में बड़ी दूरी होती है। बड़ी-बड़ी नदियाँ और पर्वत बीच में होते हैं। इसीलिए तो कल्पना और यथार्थ कभी मिलते नहीं। एक-दूसरे से दूर ही बने रहते हैं। मैं धरती पर खड़ी, नहीं, मैं कारा में पड़ी मुक्ताकाश के सपने देख रही हूँ, क्या यह पागलपन नहीं है ? ___ सहसा तलघर के पट खुले और मेरा भोजन लेकर मौसी ने प्रवेश किया। मैं उन्हें देखकर चौंक उठी। क्या इतना समय बीत गया है मेरी विचार-यात्रा में ? कितने दिवास्वप्न देख डाले हैं आज मैंने ? __ "उठो, यह भात अभी बनाया है मैंने, अभी खाया तो बेस्वाद नहीं लगेगा। रखा रहा तो रूक्षता बढ़ जाएगी, आज फिर यों ही छोड़ दोगी। कल कुछ नहीं खाया तुमने। "हमारे स्वामी आज लौट रहे हैं। चिन्ता मत करो, अब अधिक विलम्ब नहीं है तुम्हारी मुक्ति में।" - मौसी की शब्दावली स्नेह में सनी थी। मुझे लगा उन्हें स्वामी के आने की उतनी प्रसन्नता नहीं थी जितनी मेरी मुक्ति की कल्पना से वे प्रसन्न हो रही थीं। भोजन का पात्र अलिन्द में रखकर मौसी लौट गयीं। बन्द होते कपाटों की कर्कश-ध्वनि ने एक बार पुनः मुझे मेरी सीमाओं का भान करा दिया। __हाथ-मुँह धोकर बैठी तब अचानक मुझे ध्यान आया, अभी तो दिन का दूसरा प्रहर ही है। यह तो साधु की आहार-वेला है। मेरे आराध्य भी चर्या के लिए निकल रहे होंगे। आज यदि स्वामी यहाँ होते और मैं निर्बन्ध होती, तो उनसे आज्ञा लेकर नगर में जाती महावीर के दर्शन के लिए। देखती वे कैसे लौटते हैं निराहार ? क्यों नहीं मिलती उनकी विधि ? चन्दना :: 57

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