Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 34
________________ __ मैं एक बार पुनः वर्धमान महामुनि का स्मरण करने लगी। उस सौम्य वीतराग छवि का ध्यान आते ही मेरे सन्तप्त मन का सारा ताप जुड़ा जाता है। सारी पीड़ा विलोपित हो जाती है। अभी तक तो उनके दर्शन से ही अनुराग था, पर अब मैं उनकी कृपाकांक्षिणी बन गयी थी। संसार का जैसा कुत्सित रूप दो दिन में मेरे सामने उजागर हुआ है, उसे देखकर अब जगत लीला में मेरे लिए कोई रस, कोई आकर्षण शेष नहीं रह गया था। मैं अनाथ भटक रही हूँ। वे अनाथों के नाथ ही अब मेरा उद्धार करें। कब मिलेगी मुझे उनकी कृपा की कोर ? कब लेंगे वे परम कृपालु मुझे चरणों की शरण में ? इस प्रकार भगवत-आराधना में मैंने वह पूरी रात्रि बिता दी। चन्दना :: 33

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