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इस निकृष्ट अभियोग से मैं तलिमिला उठी। दण्ड देने के पहले कोई एक बार प्रतिकार का अवसर तो देता। मैं अग्निकुण्ड में कूदकर इस असत्य-अभियोग को भस्मीभूत करती। कैसे सहूँ यह अन्याय...? ऐसा अपमान...? इतनी व्यथा...? कहाँ से लाऊँ वह धीरज जो विपदा के इस सागर को तिर सके ? कहाँ जाऊँ ?...किससे कहूँ ?...कौन सुनेगा मेरी पुकार ? हे त्रिशलानन्दन ! अभी और क्या-क्या भोगना है तुम्हारी इस दासी को ? इसका उद्धार करो करुणानिधान !
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेकं शरणं मम, ...त्वमेकं... ... ...शरणं... ... ...मम...
50 :: चन्दना