Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 49
________________ ऐसा क्यों हो रहा था दीदी ! कि समय की हिलोर मुझे बहाकर जहाँ-जहाँ पहुँचाती थी, मेरा दुर्भाग्य मुझसे पहले वहाँ पहुँच जाता था। इस घर में आकर कुछ सुरक्षित अपने आपको अनुभव कर रही थी, सोचती थी दयालु स्वामी के संरक्षण में कालयापन कर लूँगी। हर दासी यह समझती है कि उसके भाग्य में स्वामिनी की ओर से उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार, ताड़ना, और दण्ड ही होंगे। पर सेठानी के मन का यह भ्रम एक अलग प्रकार का त्रास था। मैंने क्या बिगाड़ा था उस नारी का ? मुझसे किस जनम का बदला ले रही है भद्रा सेठानी ? __ ऐसी ही दुश्चिन्ताओं और संक्लेशों में छटपटाते दिन बीत गया। शाम का अंधियारा अभी गहराया नहीं था, मेरी एक संगिनी मुझे बुलाकर नीचे तलघर में ले गयी। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि स्वयं गृह-स्वामिनी उस सीलन भरे, अँधेरे कक्ष में मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। मुझे देखते ही उन्होंने जैसे गरज कर कहा “आओ महारानी ! यहाँ विराजो। -तुम्हारे ये केश बड़े आकर्षक हैं, आज इनका शृंगार करा देते हैं।" __ सुनते ही किसी अज्ञात भय से मैं काँप उठी। विष-वाण की तरह विषहरे और तीर की तरह तीखे स्वामिनी के बोल मुझे भीतर तक आहत कर गये। दो-तीन अपरिचित नारी आकृतियाँ उस अँधेरे में दिखीं। एक ने हाथ खींचकर मुझे भूमि पर बिठाया। दूसरी शायद हाथ में कर्तरी लिये ही बैठी थी, उसने तत्काल मेरे सारे केश कतर दिये। क्षण मात्र में मेरी सुचिक्कन केशराशि मेरे पैरों के पास पड़ी थी। मैं पंखकटी मयूरी की तरह विरूपा बनी दासता की विवशता का वेदन कर रही थी। केश नारी देह का अनुपम अलंकार है, सिंह के झपटने पर प्राण लेकर भागती हुई । सौंरी गाय का पुच्छ कुन्तल, झाड़ियों में उलझता है, 48 :: चन्दना

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