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गवाक्ष से प्रकाश की किरणों ने प्रवेश किया तब तक मैं तीन बार सम्मेदाचल की वन्दना कर चुकी थी । तन ही तो बन्दी था, मन तो स्वतन्त्र था। तीन बार पारस प्रभु की निर्वाणभूमि पर खड़े होकर उन्हें पुकार चुकी थी । सोचती थी जिस स्थान पर खड़ी हूँ लोकान्त में उसी के ठीक ऊपर तो विराज रहे हैं पारस प्रभु । उनकी कृपा बरस रही है मेरे ऊपर । मन के ऐसे विश्वास से उपजी प्रभु कृपा की किरणों से मेरे संक्लेश के बादल छँट गये । दुःखावेग शान्त हो गया । समता के साथ मैंने अपने अप्रिय यथार्थ को स्वीकार कर लिया ।
जब हमें ज्ञात ही नहीं है दीदी, कि पिछले भव-भवान्तरों से कितना दुष्कर्म हम अपने साथ बाँधकर लाये हैं, तब इस जन्म में, उदय की बलवत्ता को स्वीकार करके, जो सामने आवे उसे भोगना ही तो उपाय है हमारे पास ।
आश्चर्य तो यह है कि यह सब जानते हुए भी,
अशुभोदय के काल में मन अस्थिर क्यों हो जाता है ? परिणाम क्यों विषम हो जाते हैं ?
उस क्षण हमारी समता कहाँ खो जाती है ?
तब मन का धीरज कहाँ विलीन हो जाता है ?
इस मन की थिरता का उपाय क्या होगा ?
विचारधारा को तनिक विराम देकर अब मैंने भद्रा सेठानी द्वारा दी गयी कारा का अवलोकन किया। कक्ष बड़ा था, चारों ओर सीलन और दुर्गन्ध का साम्राज्य था। सम्भवतः वर्षों से इसमें मानव का वास नहीं हुआ था। डांस, मशक और उनके कुछ सहवासी निर्भीक विचर रहे थे। पैर में बेड़ी होते हुए भी लम्बी श्रृंखला के कारण कक्ष के पीछे तक जाने की सुविधा थी, साँस घुटने का भय भी नहीं था और दैनिक क्रियाओं की समस्या भी नहीं थी ।
मुझे लगा - मेरी सुविधा का पूरा ध्यान रखा गया है,
कितनी दयालु हैं मेरी स्वामिनी ! मेरा कर्मोदय ही मेरी दुरवस्था का मूल कारण है ।
चन्दना : 51