Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 53
________________ दूसरे तो केवल निमित्त हैं, उनका कुछ दोष नहीं। सन्मति महामुनि उन्हें सन्मति प्रदान करें, मुझे इस दशा में रहने की शक्ति दें, समता से उदय को सहने की शक्ति दें। मध्याह्न में मौसी भोजन लेकर आयी। कोदों का रूखा भात और छाछ का सकोरा सामने रखकर उन्होंने पीड़ा भरे स्वर में कहा___ “आज इसी से सन्तोष करना होगा बेटी ! तुम चिन्ता मत करना, अल्प काल की बात है। स्वामी के लौटते ही सब ठीक हो जाएगा।" मैंने उनकी आत्मीयता के लिए कृतज्ञता जतायी, और कुछ नहीं कहा। पर तभी मेरे मन में विचार आया जहाँ क्षुधा-निवृत्ति ही अभिप्राय हो वहाँ भोज्य पदार्थों के नाम-रूप, गन्ध-स्पर्श और स्वाद, सब अप्रासंगिक हैं। इनका कोई अर्थ नहीं। वर्धमान महामुनि के बारे में भी यही तो सना थादिनों-पक्षों-महीनों के अन्तर से, देह-पोषण के लिए नहीं, तप-वृद्धि के लिए, श्रावक के द्वार परअनुद्दिष्ट - निरुपद्रव, अयाचित और पवित्र, निर्दोष और नीरस भोजन स्वीकारते हैं। 'गर्तपूरण' और 'अग्निशमन' की दृष्टि बनाकर, जो जितना अंजुरी में आ जाए, उसी में सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि दस-ग्यारह वर्ष से उन तपस्वी के आहार का यह क्रम है तो क्या मैं दस पाँच दिन भी वैसा नहीं निभा सकूँगी ? निभा सकती हूँ और अवश्य निभाऊँगी मैं। बहुत देख लिया है अल्पकाल में, बड़े अनुभव प्राप्त कर लिये हैं छोटी-सी अवधि में। इस कारा से यदि जीवित निकल सकी, 52 :: चन्दना

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