Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 48
________________ अपने केश फैलाकर पिता के चरणों का प्रोक्षण करती रहे, यह तो होना ही चाहिए। चरणों पर बिखरी मेरी केशराशि को, शायद मलिनता से बचाने के विचार से, स्वामी ने हाथ से उठाया और मेरे कन्धे पर डाल दिया। तभी सहसा एक रोष भरी कर्कश ध्वनि कक्ष में गूंजी "यमुना...! क्या दिन भर पाँव ही धुलते रहेंगे ?...इसी से भूख मिट जाएगी ? ...क्या आज स्वामी को भोजन नहीं करने देगी यह मूर्खा ?" स्वामिनी का यह व्यंग्य-वाण छूटा तो यमुना मौसी की ओर था, परन्तु उसका लक्ष्य किसी से छिपा नहीं था। वातायन से छिपकर देखा गया यह दृश्य उनके मन के शंकाकुरों को सींच रहा था, उनकी जड़ों का विस्तार कर रहा था। शंका, घृणा और डाह, उपेक्षा और अपमान, अवहेलना और अभियोग, वाणी के ये सातों हलाहल स्वामिनी के उन तीन वाक्यों में घुले हुए थे। सुनकर मैं भीतर तक सिहर उठी। ___विप्लव के पूर्व घुमड़ने वाली घटाओं की तरह गरजती स्वामिनी कक्ष के भीतर चली गयीं। वातायन के पट मुंद गये। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना स्वामी भोजनगृह की ओर चले। कोठरी में आकर मैं पीड़ा से कराह उठी। चन्दना::47

Loading...

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64