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उस दिन मध्याह्न का समय था। भोजन की बेला टलती जा रही थी पर स्वामी अभी तक लौटे नहीं थे। स्वामिनी भोजनोपरान्त विश्राम के लिए चली गयी थीं। दासियाँ उनकी सेवा में संलग्न थीं। मैं स्वामी की प्रतीक्षा में द्वार पर दृष्टि लगाये बैठी थी। भोजन में विलम्ब हो जाने पर उन्हें कष्ट हो जाता था, आज तो कुछ अधिक ही देर हो रही थी।
सहसा रथ की आहट मिली और स्वामी द्वार पर दिखाई दिये। सूर्य की प्रचण्डता और क्लान्ति के कारण उनका चेहरा विवर्ण हो रहा था, मस्तक स्वेदसिक्त हो रहा था। मैंने आसन दिया और झुककर उनका पाद-प्रक्षालन करने लगी। उनके चरण पखारते समय में सोच रही थी___'उस दिन हाट में इन चरणों का सहारा न मिला होता तो क्या आज मैं जीवित होती ? कब की अपने जीवन का अन्त कर चुकी होती। ___ 'कभी सुना था-कलंक लगाकर पतिगृह से निष्कासित अंजना के माता-पिता ने, लोकापवाद से भय से, अपनी ही पुत्री के लिए महल के द्वार बन्द करा दिये थे। घर में शरण नहीं दी थी उसे। 'पर, एक तुम हो मेरे पितृव्य !
तुमने हाट में नीलाम पर चढ़ी इस अभागिनी को सबके सामने 'कन्या' कहकर बोली लगायी
और 'पुत्री' कहकर इन चरणों में आश्रय दिया। मेरे लिए पूज्य हैं ये चरण, और महान हो तुम।' मुझे लगा दीदी ! अक्षय बन जाए यह चरणधूलि। कभी अन्त न हो इसका। ऐसे ही पखारती रहूँ ये पावन चरण। घड़ी भर नहीं ! दिन भर नहीं ! जीवन भर।
इन्हीं भावना-तरंगों में डूबती-उतराती मैं, बार-बार उन चरणों को धोती जा रही थी। अनजाने मेरे केश काँधे पर से छिटक कर, स्वामी के चरणों पर बिखर गये। यह मैंने जान-बूझ कर नहीं किया था, पर यह मेरे मन का ही हुआ था। मुझे लगा ठीक ही तो है, पिता अपनी ममता से बेटी के सिर पर छाया करता रहे और बेटी
46:चन्दना