Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 38
________________ हमने कौशाम्बी के दासी-पण्य में प्रवेश किया तब तीन प्रहर दिन बीत चुका था। यात्रा की क्लान्ति और तपते सूर्य की उष्णता ने मुझे निढाल कर दिया था। हाट लग चुकी थी और वे लोग यथाशीघ्र मेरा मूल्य प्राप्त करके लौटना चाहते थे। अकस्मात् मेरे किसी परिचित या सहायक के मिल जाने की आशंका उन्हें त्रस्त कर रही थी। हाट में मुझे एक चबूतरे पर खड़ा कर दिया गया। आस-पास विक्रय के लिए लायी गयी अनेक अभागिनी स्त्रियाँ वहाँ पहले से उपस्थित थीं। ____ मैंने पहली बार ऐसी हाट देखी थी जहाँ पशुओं की तरह मनुष्यों का क्रय-विक्रय होता था। कभी सुना था वैशाली में भी यह सब होता है, पर देखने का अवसर नहीं आया था। लोग देख-परखकर अपनी सेवा के उपयुक्त दासियों का मोल-भाव कर रहे थे। कहीं कहीं बोली लगाकर क्रय-विक्रय हो रहा था। कई क्रेता तो दासियों की देह के अवयव टटोलकर उनकी आयु और दैहिक क्षमताओं का आकलन करके दाम लगा रहे थे। मैं चकित थी कि नारी को जननी, रमणी और दुहिता के रूप में देखने वाले समाज ने हाट में खड़ा करके उसका यह कौन-सा रूप रच लिया है ? ___ मुझे आश्चर्य हुआ कि उन क्रेताओं में अनेक स्त्रियाँ भी थीं। वहाँ मनुष्य के नाते हम सबकी अस्मिता खो गयी थी। लगता था हम मनुष्य नहीं, मात्र निष्प्राण भौतिक वस्तएँ हैं। हमारी दुर्दशा में रस लेनेवाले कौतकी जनों की संख्या भी वहाँ कम नहीं थी। उनकी लोलुप दृष्टियाँ मेरे तन-वदन में कण्टक-सी चुभ रही थीं। उनके दाहक व्यंग्य-वाक्य पिघले शीशे की तरह कानों में दारुण दाह उत्पन्न कर रहे थे। हे भगवन, यह किस नरक में आ गिरी हूँ मैं ? क्या लिखा है मेरे भाग्य में ? सहायता का एक मात्र अवलम्ब, कौशाम्बी का राजमहल एक बार फिर मुझे स्मरण आया। मैं तुमसे अधिक दूर नहीं थी दीदी ! पर उसी समय एक दूसरा विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ मैं सोचने लगी-लोक देखेगा कि राजमहिषी की सहोदरा दासी के रूप में चन्दना :: 37

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