Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 39
________________ बिकने के लिए हाट में खड़ी है, उसके लिए बोली लगायी जा रही है, तब तुम्हारे मान-सम्मान और तुम्हारे जन्मजात आभिजात्य का क्या होगा ? कैसी कैसी चर्चा फैलेगी तुम्हारे कुल के बारे में ? क्या क्या गर्हित नहीं सुनना पड़ेगा हमारे उदयन को ? __मैंने पूछा अपने आपसे-केवल अपने अहित को टालने के लिए अपनी दीदी के मान-सम्मान को खण्डित करने वाला मार्ग ग्रहण करूँ यह कैसे और कहाँ तक उचित होगा मेरे लिए ? मैंने फिर विचार किया-वैशाली की राजकुमारी के रूप में अपने-आप को प्रकट कर देने पर क्या मेरी वैशाली के गौरव को हानि नहीं पहुँचेगी ? ऐसा करके क्या माता सुभद्रा को, अपने आराध्य वर्धमान महामुनि की जन्मदात्री महारानी त्रिशला प्रियकारिणी को और मगध की राजमहिषी चेलना को भी लोकापवाद के पंक में ढकेल देना क्या मेरे लिए उचित होगा ? ___ मेरी ही अन्तर्ध्वनि मुझे सुनाई दी-'तू तो अपने दुष्कर्मों का फल भोग रही है चन्दना ! परन्तु उसमें इन सबका क्या अपराध ? गत जन्मों में तूने किसी का अपराध किया होगा जिसका फल तुझे मिल रहा है। अब इतने जनों की अपराधिनी बनी तो आगे के लिए कैसे-कैसे कर्म बाँधेगी अपने लिए ?' तब मैंने अपने आपको आदेशित कियानहीं, नहीं चाहिए मुझे किसी की सहायता। मेरे प्रभु ही अब मेरे एक मात्र सहायक हैं। जो त्रिलोक की पीड़ा हरण करने वाले हैं, वही मेरी पीड़ा का निवारण करेंगे। मैं इसी ऊहापोह में खोई खड़ी थी। अब तक मेरा ध्यान नहीं गया था। सामने भारी आभूषणों से लदी, मुँह में ताम्बूल का आस्वाद लेती, एक अधेड़ वाचाल महिला रुचि लेकर मेरी देह का निरीक्षण-परीक्षण कर रही थी। लोगों की चर्चा पर ध्यान गया तब मुझे ज्ञात हुआ कि वह कौशाम्बी की कोई बड़ी गणिका है। वैसी ही एक-दो और महिलाएँ भी मेरी ओर निहारती वार्तालाप कर रही थीं। "इस नवोढ़ा के लिए एक सहस्र स्वर्ण।" उस स्थूलकाय महिला ने मेरी बोली लगायी। तत्काल एक अन्य महिला ने उसे चुनौती दी "बारह सौ स्वर्ण।" 38: चन्दना

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