Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ की शरण में पहुँचकर कुछ और आश्वस्ति का अनुभव हुआ। मेरे तन-मन को वेधनेवाले कामुक दृष्टियों के शूल यहाँ नहीं थे। अप्रिय तथा पीड़ा देनेवाले वचनों की बौछार भी यहाँ मुझ पर नहीं पड़ रही थी। जो भी भाग्य में था उसे मैं चुपचाप भोग रही थी । यथा अवसर प्रभुनाम का स्मरण करके अपने आपको धैर्य भी दिला लेती। वर्धमान महामुनि के स्मरण से निमिष भर को शान्ति प्राप्त कर लेती थी । परन्तु कुछ दिनों में ही ज्ञात हो गया कि अभी मेरे दुर्भाग्य का अन्त नहीं आया था। मुझे कुछ पीड़ाएँ भी भोगनी थीं। 1 सुना करती थी, जब अशुभ कर्म का उदय आता है तब मित्र भी शत्रुवत् व्यवहार करने लगते हैं, जिनसे सुख मिलता था वही हमारे दुख के निमित्त बन जाते हैं। आज यह तथ्य मेरे लिए भी सही सिद्ध हो रहा था । विडम्बना यह थी कि मेरा शत्रु कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था, मेरा ही शरीर आज मेरा बैरी बन रहा था। देह की कुरूपता से तो सारा जग दुखी होता है, पर मेरे लिए तो मेरा रूपसौन्दर्य ही नित नवीन विपत्तियों और नये-नये दुःखों का निमित्त बन रहा था। मेरी युवावस्था और रूप को देखकर स्वामिनी के मन में आशंकाओं के अंकुर उपजने लगे। मैं तो उनके लिए अज्ञात कुलशीला, दाम देकर लाई गयी दासी थी, पर उनका पति तो उन्हें अपरिचित नहीं था। वह तो जाना-माना, सदाचारी साधु पुरुष था । मैं सोच भी नहीं पाती कि जो मुझे 'पुत्री' कहकर इस घर में लाये थे, उन्हीं भद्र पुरुष के लिए उनकी जीवन संगिनी के मन में ऐसे कुत्सित और निराध र विचार कैसे आये होंगे ? क्या मेरा दुर्भाग्य दूसरों के लिए भी लांछन का कारण बन सकता है ? मुझ जैसी अभागिनी को वेश्या के हाथ से बचाकर घर में शरण देना, या मेरी विपत्ति से द्रवित होकर पुत्री की तरह मेरी कुशल कामना करना, क्या यही उस महापुरुष का अपराध बन रहा था ? जो भी हो, मौसी से पता लगता रहता था कि भद्रा सेठानी को इस घर में मेरा आना अच्छा नहीं लगा था। उनके पति ने मेरी रूपमाधुरी पर मुग्ध होकर, अपनी वासना पूर्ति के लिए ही मुझे इतनी सारी स्वर्ण मुद्राएँ देकर क्रय किया होगा, यह क्लिष्ट कल्पना भद्रा सेठानी के मन में आयी और अब धीरे-धीरे उनकी धारणा में परिणत होने लगी थी । स्वामिनी की तीक्ष्ण शंकालु दृष्टि हर पल हमारे व्यवहार की चौकसी करती रहती। कई बार अपने पति से वे अकारण रुष्ट होकर झगड़ने लगतीं और कभी-कभी अपशब्दों का प्रयोग भी कर बैठती थीं। उनकी द्विअर्थक अभद्र चन्दना :: 43

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64