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सम्भव नहीं हुआ। उसके आवेग में मैंने अपना मस्तक पूरे जोर से भीत पर मार लिया। पीड़ा के मारे मैं बिलखने लगी।
इतना कहते कहते चन्दना फफक कर रो पड़ी। मृगावती की आँखों से भी अश्रुधार बह चली। वे बहन को बाँहों में भरकर सान्त्वना देने लगीं
“अधीर मत हो चन्दन ! वह एक भयानक दुःस्वप्न था, बीत गया। अब जागने पर उसका भय कैसा ? रुको मत चन्दना ! आज अपनी हर अनुभूति को अभिव्यक्ति देकर साकार कर दो। एक दिन तुम्हारी यह व्यथा पुराणों की कथा बनेगी। सहस्राब्दियों तक लोग उससे साहस और दृढ़ता का सन्देश पाते रहेंगे। विपदा का प्रतिकार करने और अडिग बने रहने की प्रेरणा लोक को तुम्हारे चरित्र से मिलेगी। कहो आगे क्या हुआ ?"
वह दुःस्वप्न नहीं था दीदी ! मेरा भोगा हुआ यथार्थ था। फिर मुझे कुछ भी स्मरण नहीं, मैं बेसुध हो गयी या मुझे निद्रा ने घेर लिया। कितनी घड़ियाँ बीत गयी होंगी जब मैंने अपने आपको ऊँचे कोट-कंगूरों से घिरे एक उद्यान में खड़े पाया। वहाँ महाविटप के नीचे एक क्षीणकाय नारी शोकमग्न बैठी थी। उसके चारों ओर अशोभन आकृति वाली प्रतिहारियों का घेरा था।
उस निरीह नारी को देखकर लगता था जगत का सारा विषाद समेट कर, उसी उपादान से विधाता ने अवसाद की वह मूर्ति गढ़ी होगी। उस निर्जीव-सी नारी को देखकर, प्रथम दृष्टि में मृत्तिका-मूर्ति का ही भ्रम होता था। क्षण-क्षण पर मुख से निकलते दीर्घ शीतोच्छ्वास ही उसके जीवित होने का बोध कराते थे, चेतना का अन्य कोई लक्षण उस देह में दिखाई नहीं देता था।
अचानक सारे उपवन में हलचल मच गयी। लगा जैसे भूडोल ही आ गया हो। सेवक-सेविकाओं के समूह अपने आपको व्यवस्थित करने में व्यस्त हो गये। भयानक छवि वाला उनका भूधराकार महाराजा उद्यान का भ्रमण करके हमारे सामने से ही वापस जा रहा था। उसकी डारावनी छवि देखते ही पहचान गयी कि मैं लंका की अशोक-वाटिका में सीता माता के सामने खड़ी हूँ। यह मैं किस नयी विपत्ति में फँस गयी ? मैं भय से थर-थर काँपने लगी। मैंने एक बार पुनः अपने आराध्य को पुकारने का प्रयत्न किया परन्तु मेरी पुकार रुद्ध होकर रह गयी।
उसी छटपटाहट में मेरी निद्रा भंग हुई। सावधान होने पर अनुभव हुए स्वप्न की भयावहता से मेरी देह स्वेद-सिक्त हो रही है, मैं अब भी काँप रही थी। फिर मुझे आभास हुआ जैसे स्वप्न में भगवती सीता मुझसे ही कुछ कह रही हैं
चन्दना :: 31