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सहसा कुटिया का द्वार टालकर भीलनी आयी और मेरे पास बैठ गयी। बिना भूमिका के उसने अपना मनोगत शब्दों में बाँधकर बिखराना प्रारम्भ किया___ "तुम बहुत हठीली हो बहिन ! तुम्हारे हित की बात कहती हूँ पर तुम सुनती ही नहीं। नारी की सृष्टि तो पुरुष के लिए ही हुई है। पुरुष के बिना उसके जीवन का कोई अर्थ होता है क्या ? मेरा पति बुरा नहीं है। वह तुम पर आसक्त है, यदि तुम चाहो तो हमारे साथ सुखी होकर रह सकती हो। मैं इसकी तीसरी पत्नी हूँ। हम तीनों दो वर्ष साथ रहे। फिर बड़ी एक दिन किसी वनपशु का ग्रास बन गयी, छोटी कुछ समय पूर्व इसे छोड़कर चली गयी। अब तुम चाहो तो हम दोनों मिलकर रह लेंगे। यहाँ मेरे साथ तुम्हें कष्ट नहीं होगा। यहाँ तो हर कुटिया में तीन-चार का निर्वाह होता है। यही हमारे कुलदेवता की आज्ञा है।"
मैंने नम्रतापूर्वक उसके हितोपदेश का आभार मानकर दृढ़तापूर्वक अपना निर्णय भी दोहरा दिया
__“जो मेरी देह को हाथ लगाएगा वह मुझे पाएगा नहीं, मेरा निष्प्राण शरीर ही पा सकेगा। मेरे संस्कार दूसरी तरह के हैं। मैं अपने कुल की रीति निभाऊँगी।"
भीलनी ने समझ लिया होगा कि मैं अपनी हठ छोड़ने वाली नहीं हूँ। उसने कुछ-कुछ निराशा और रोष के साथ अपने पति के निर्णय की घोषणा की___ "जैसा तुम्हें अच्छा लगे वैसा ही करो, पर एक बात जान लो ! मेरे पति ने तुम्हें पाया है सो वह ऐसे छोड़नेवाला नहीं है। मैंने उसे समझाने का प्रयास किया परन्तु उसका कोई फल नहीं निकला। उसने निश्चय किया है कि यदि उसे तुम्हारा तन नहीं मिल पाया, तो तुम्हारे विनिमय से वह स्वर्ण प्राप्त करेगा। उत्तर पाने पर आज ही तुम्हें विक्रय हेतु हाट में ले जाने की व्यवस्था है।"
मैंने बिना किसी प्रतिरोध के यह विकल्प स्वीकार कर लिया। प्रतिरोध करने का कोई अर्थ भी नहीं था। हाट में जो मुझे क्रय करेगा, हो सकता है वह सर्वथा राक्षस न हो। भाग्य का लिखा सामने आएगा तभी विचार करूँगी कि मुझे क्या करना है। मैंने अपना संकल्प भीलनी को जता दिया। वह पति को उसकी सूचना
34 :: चन्दना