Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 22
________________ डालना ही ठीक होगा। इस चट्टान से पीछे प्रपात में छलाँग लगाते ही स्वयमेव मेरे सारे दुखों का अन्त हो जाएगा। यह सारी निराशा, सारी विभीषिका और यह सारा अन्धकार नष्ट होने में एक क्षण ही तो लगेगा। वह पापिष्ट अपहर्ता विमान उतारने के बदले यदि नभ से ही मुझे इस वन में फेक देता तो अब तक तो यह सब हो ही चुका होता। अब इसमें बिलम्ब क्यों करूँ ?' मैं उठकर खड़ी हो गयी। चलने को पग उठाया कि तभी दूर गगन में बिजली कौंध गयी। अँधेरे को चीरती हुई विद्युत की प्रकाश-रेखा ने मुझे प्रकृति के उत्थान और पतन के उस अद्भुत समन्वय का एक बार पुनः साक्षात्कार करा दिया। एक बार पुनः नश्वर जगत की अनश्वर व्यवस्था मेरे सामने साकार हो उठी। आकाश में क्षणमात्र के लिए उभरी वह रजत-रेखा मन के क्षितिज पर नया सूर्योदय कर गयी। मुझे भास गया कि जन्म और मरण, मरण और जन्म, दोनों एक मुद्रा के दो पहल ही तो हैं। मैं मृत्य की शरण में जा रही थी, किन्तु क्या सचमुच जीवन के कष्टों से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य है मृत्यु में ? मृत्यु तो जीवन की जननी है। वह आती है तो इस जीवन का दीप भले ही बुझ जाता है, पर उसी समय एक नये जीवन का सूत्रपात भी तो हो जाता है, एक नया दीप प्रज्वलन तत्काल ही तो हो जाता है। यह चक्र तो अनादि से चल रहा है। इसमें उलझकर मुक्ति की कामना, क्या जल-मन्थन से नवनीत की कामना जैसी निरर्थक नहीं है ? जो अनन्त समस्याओं से भरे दूसरे जीवन में ढकेलती हो वह मृत्यु किसी समस्या का समाधान कैसे हो सकती है ? मुझे चिन्तन के आलोक में मार्ग सूझ गया। प्रपात की ओर उठा मेरा पग अनायास वापस लौट गया। मैं पुनः उसी शीतल चट्टान पर बैठ गयी। चन्दना ::21

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