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जीवन और मृत्यु को लेकर मेरा हृदय - मन्थन होता रहा। मुझे लगा, अनागत के भयों से डरकर यह मानव-पर्याय खो देने का मेरा संकल्प विवेक-सम्मत नहीं था। भयावेग में लिया गया वह निर्णय क्षणिक भावुकता की उपज थी। जो जन्मा है वह मरेगा ही । मेरी भी एक दिन मृत्यु होगी । मृत्यु से कोई बच नहीं सका, मैं भी नहीं बचूँगी, पर उस बिजली की कौंध ने मुझे जो सोचने का अवसर दिया, उसका सहारा पाकर मैं मृत्यु के भय से बच गयी, सदा सदा के लिए बच गयी ।
मैंने निश्चय कर लिया कि अब मैं मृत्यु से पहले नहीं मरूँगी । 'भव - मरण' का सामना तो एक दिन सबको करना है,
परन्तु आतंक के आवेग में प्रतिक्षण जो 'भाव - मरण' होता है, वह मुझे अब नहीं करना है
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मैं इस दुर्लभ पर्याय को ऐसे क्षणिक आवेश में नष्ट नहीं करूँगी । स्व-कल्याण के लिए इसका उपयोग करूँगी ।
अपनी पूरी शक्ति लगाकर मैं परिस्थितियों से जूझती चलूँगी, शक्ति भर विपत्तियों का सामना करूँगी।
उस क्षण मैंने यह संकल्प अवश्य कर लिया दीदी, कि यदि कभी मेरे शील पर संकट पड़ा तो मैं प्राण देकर भी शील की रक्षा करूँगी। अपनी शील सम्पदा को सुरक्षित रखकर ही जिऊँगी और अवसर आया तो शील-रक्षा के लिए आगे बढ़कर मरण को स्वीकार कर लूँगी। तब मैं बाँहें फैलाकर अपनी मृत्यु को स्वयं गले लगाऊँगी।
जैसे-जैसे रात बीतने लगी वैसे ही वैसे अटवी की नीरवता बढ़ने लगी । हिंस्र पशुओं की गर्जनाएँ क्रमशः मन्द और बन्द होती गयीं। जब-तब कहीं किसी आतुर प्राणी के संचरण से वह नीरवता क्षणेक के लिए भंग होती थी । बीच-बीच में कुछ पक्षी भी अपनी उपस्थिति का आभास दे जाते थे। मुझे स्मरण हुआ - जीवन में पहली बार आज मैं रात्रि में अकेली हूँ। माता ने हमें कभी अकेला नहीं छोड़ा। वर्जना करने पर भी कम-से-कम एक दासी तो हमारे कक्ष में होती थी। माता के लिए मैं अभी अबोध बालिका ही तो थी । वे स्वयं भी रात्रि में एक बार मेरे कक्ष में अवश्य आती थीं। मैं सोचती रही दीदी, कि इस समय माता भी मेरी तरह निद्राहीन बैठीं मुझे स्मरण करके रो रही होंगी ।
मेरे विचारों की यह धारा अधिक देर नहीं चली। अब मेरा ध्यान सामने उपस्थित समस्याओं की ओर गया। रात्रि तो इसी चट्टान पर बितानी है । पशु
22 :: चन्दना