Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 26
________________ पर, मनुष्य पर विश्वास करने का अब मुझमें साहस नहीं था। आशंका से भरी मैं अपनी पूरी चेतना को कर्णगत करके जहाँ से वह ध्वनि आ रही थी उस ओर देखने लगी। एक क्षण में ही झाड़-झंखाड़ के बीच से उभरती दो मानव-आकृतियाँ मुझे दिखाई दीं। परस्पर बातों में लगे वे लोग अब इसी ओर आते दिखने लगे थे, पर अब तक उन्होंने मुझे देखा नहीं था। उनकी दृष्टि से ओझल होने का उस पाषाण-शिला पर मेरे पास कोई उपाय नहीं था। पार्श्व प्रभु का नाम लेती मैं जैसी बैठी थी वैसी ही बैठी रही। चट्टान के निकट आने पर ही मुझ पर उनकी दृष्टि पड़ी होगी। वे लगभग विस्मित से मेरी ओर निहारने लगे। उनमें एक स्त्री थी, दूसरा पुरुष। गहरा श्याम वर्ण और कटि के ऊपर सर्वथा अनावृत देह से ज्ञात हो गया था कि वे वनवासी भील हैं, मृगया के लिए वन में आये होंगे। मैंने लक्ष्य कर लिया कि मेरी ओर इंगित करके, बात करते हुए वे इसी ओर बढ़ते चले आ रहे थे। यह बीती सन्ध्या की बात होती दीदी, तो तुम्हारी चन्दन भय से काँप गयी होती, चीख पड़ी होती, या मूर्छित हो गयी होती। पर आज तो उस अटवी में एक दूसरी ही चन्दना बैठी थी। मुझे विश्वास हो गया था कि दुष्कर्मों का प्रकोप हो तब उपवन में भी मनुष्य राक्षस बनकर आकाश से टपकता है, और पशुता का आचरण कर बैठता है। पर जब तक वैसा न हो, तब तक भयंकर अटवी में हिंस्र पशुओं के बीच भी, मनुष्य की कोई हानि नहीं होती। जगत के मंच पर, कर्म के प्रपंच के बिना, रंचमात्र भी अभिनय-आयोजन नहीं होते। आत्म-बोध का ऐसा अभय मुझे प्राप्त हो गया था कि अब मुझे किसी से कोई भय नहीं रह गया था। उन दोनों की ओर से सर्वथा निस्पृह और निरपेक्ष, नत नयन, निर्भय, निरुद्विग्न, और मौन, मैं अपने स्थान पर बैठी रही। वे दोनों पति-पत्नी थे। चट्टान पर आकर मेरे सामने बैठ गये। मुझे लगा कि स्त्री ने मुझे शीश झुकाकर नमन भी किया। सम्भवतः यह मेरे धैर्य और निर्भीकता का प्रभाव रहा होगा। बाद में भीलनी ने बताया था कि उस समय उसने मुझे वनदेवी समझकर प्रणाम किया था। स्त्री के मन में जो भी रहा हो परन्तु पुरुष की दृष्टि अच्छी नहीं थी। उसमें वासना का विकार था। प्रकृति का यह कैसा वैचित्र्य है दीदी, कि हम नारियों को पुरुष के दृष्टि-निक्षेप मात्र से उनके अभिप्राय का अनुमान हो जाता है। दूर से चन्दना :: 25

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