Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 24
________________ 1 इस ऊँचे चिकने पाषाण पर चढ़कर आ सकते हैं या नहीं सो कहना कठिन है सर्प- सरीसृप सुगमता से आ सकते हैं । परन्तु अब कौन आ सकता है और कौन नहीं, यह सोचकर क्या होगा ? अपने आयुकर्म पर आस्था और प्रभु नाम पर भरोसा करना चाहिए । जहाँ सारे सहारे छूट जाएँ वहाँ भगवान का नाम ही सहारा है। 'प्रभु नाम' का स्मरण आते ही तपस्वी महावीर की सौम्य छवि मेरी आँखों में झूलने लगी। उनकी करुणा - पूरित मुखाकृति ऐसे झलकने लगी जैसे वे यहीं, इसी शिला पर विराज रहे हों। सहसा मेरे मुख से निकल गया- 'आज की रात मेरे मन में ही विराजो मुनिनाथ ! इस भीत अबला को साहस दो महावीर !' करुणानिधान वर्धमान मुनिराज के गुणानुवाद में मेरी समग्र चेतना तल्लीन हो गयी। मेरे प्रभु वर्षों से जिस सत्य की शोध में संलग्न हैं उस सत्य की एक कणिका मेरे अन्तस्तल में दीप्त हो उठी। मैं देह नहीं हूँ, विदेह हूँ । जन्म और मरण, रोग और जरा, वध और बन्धन, ये सारे उपद्रव देह पर होते हैं, मैं तो इन सबसे विलग, चेतना का पुँज हूँ । कष्ट मुझे कोई दे नहीं सकता, व्यथा मुझे व्याप ही नहीं सकती, तब आतंकित होने का प्रश्न ही कहाँ है ? मरण में मुझे स्पर्श करने की शक्ति ही नहीं है तब मृत्यु का भय कैसा ? बस, ऐसे ही प्रभु-स्मरण और आत्म-चिन्तन में अपनी समग्र चेतना को नियोजित करके मैं उस पाषाण शिखर पर रात भर बैठी रही । विपत्ति के भय की बात तो दूर, मुझे उस पाषाण की शीतलता का भी भान नहीं हुआ । चन्दना :: 23

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