Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 20
________________ सम्भवतः इसके बाद ही मैं मूर्च्छित हो गयी । पाषाण के शीतल स्पर्श से जब तन्द्रा टूटी तब मैंने स्वयं को सघन वन की भयंकर अटवी में एक ऊँची चट्टान पर पाया। मैंने देखा सामने दो विमान धरती पर खड़े हैं। समीप ही एक स्त्री-पुरुष परस्पर विवाद में उलझ रहे हैं। महिला उच्च स्वर में बकझक कर रही है। उनकी बातों से मैं इतना समझ पायी कि ये कोई विद्याधर दम्पती हैं। पुरुष मेरा अपहरण करके ले जा रहा था । उसे ज्ञात नहीं था कि उसकी लम्पटता से त्रस्त, सदा - शंकालु सहचरी आज उसका पीछा कर रही है । पीछे पत्नी का विमान आता देखकर, उसकी ललकार सुनकर ही उस पामर ने अपना विमान अटवी में उतार लिया था । सम्भवतः पत्नी का विमान उतरने के पूर्व ही वह मुझे वहाँ छोड़कर भागना चाहता था, पर पत्नी के आगमन ने उसे इतना अवसर नहीं दिया। अब वह अपराध बोध से ग्रसित, वनांचल के भ्रमण का रूपक बनाकर, अपने को निर्दोष बताने का नाटक कर रहा था । थोड़ी देर में वे दोनों लड़ते-झगड़ते विमानों में बैठ वहाँ से चले गये । अब मैं उस अटवी में निपट अकेली रह गयी थी । सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। उसकी स्वर्णाभा पूरी अटवी पर छा रही थी । चारों ओर निस्तब्धता और निर्जनता का साम्राज्य दिखाई देता था । दूर दूर तक मानव के अस्तित्व का कोई चिह्न मुझे दिखाई नहीं दिया । प्रकृति की सुन्दरता तो बहुत देखी थी दीदी, पर उसका सौन्दर्य भयावह भी होता है यह पहली बार मैं उस अटवी में ही जान पायी। सामने वंश-वृक्षों की कोंपलें पूरी वनराजि के ऊपर ऐसे अपनी बढ़त दिखा रही थीं जैसे बादलों को छूने का प्रयास कर रही हों । पार्श्व में एक प्रपात था । पुष्कल परिमाण में अटूट जलराशि तीव्र गति से, अपने पतन का घोष करती, नीचे कुण्ड में गिरकर वन में विलीन होती जा रही थी । कुण्ड पर अन्धकार छाने लगा था। आगे मैं कुछ भी देख नहीं पा रही थी । प्रकृति का यह रूप देखकर एक क्षण के लिए मैं उसमें खो गयी। एक ओर ऊपर की ओर उठती कोंपलें प्रकृति के निरन्तर उत्थान की ध्वजा फहरा रही थीं । उधर दूसरी ओर पातालगामी प्रपात प्रकृति के अन्तहीन पतन को मनहर रूप में प्रस्तुत कर रहा था। प्रकृति का पतन भी इतना मनभावन होता है, यह मुझे पहली बोध हुआ। मुझे लगा लुभावना सौन्दर्य हो या भयावह रूप, दोनों के सृजन में प्रकृति के चन्दना :: 19

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