Book Title: Chandana
Author(s): Niraj Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ हर दिन की तरह वह भी एक सामान्य-सा दिन था। मध्याह्न ढल रहा था और सूर्य का तेज मन्द होने लगा था। उपवन की ओर से फूलों की सुगन्ध लिये सुरभित बयार हमारे कक्ष तक आ रही थी। मेरा मन उपवन की सैर के लिए मचल उठा। मोहिनी और मनोरमा को साथ लेकर मैं वन क्रीड़ा के लिए चली गयी। वहाँ पहुँचकर सारथी और रक्षक पथ के पार्श्व में विश्राम करने लगे और हमने सदा की तरह हँसते-बोलते वन में प्रवेश किया। तुम तो जानती हो दीदी ! वैशाली की राजपुत्रियों के लिए वनक्रीड़ा कोई नयी बात नहीं है। यह तो हमारा रोज का कौतुक था। गणतन्त्र की सीमा के भीतर राज-परिवार तो क्या, हर नागरिक सुरक्षित था। नर और नारियाँ, यहाँ तक कि बालक-बालिकाएँ भी, निर्भय विचरते थे। राज्य में कहीं किसी प्रकार का भय नहीं था। हम तीनों सहेलियाँ अपनी क्रीड़ा में मगन वृक्षों के बीच घूमने लगीं। झूले पर बिठाकर एक-दूसरे को झुलाने लगीं। उन दोनों को झूले में व्यस्त देख मैं पुष्प बटोरती हुई कुंज के बाहर तक चली गयी। बस दीदी, यही मेरे लिए अभिशाप हो गया। अकस्मात् पीछे से किसी के बलिष्ठ हाथों ने मुझे जकड़ा और आकाश में उठा लिया। कहने में तो समय लगता है दीदी ! पर यह घटने में क्षणांश भी नहीं लगा। मैं पूरे जोर से छटपटायी और चीख पड़ी, पर आततायी ने मेरा मुँह इस प्रकार दबा रखा था कि मेरी चीख भीतर ही घुटकर रह गयी। - सच तो यही है बहन कि कर्मों की गति न्यारी है, उसे समझना सरल नहीं। चालाक भेड़िया जिस प्रकार झपट्टा मारकर अपने शिकार को उठा ले जाता है, उसी प्रकार उस राक्षस ने मुझे धरती से उठा लिया था। पास ही खेलती सखियों को पुकार सकूँ इतना भी अवसर मुझे नहीं मिला। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि कभी ऐसी विपत्ति भी मुझ पर आ सकती है। बस, इतना ही मुझे स्मरण है। फिर मेरे नेत्रों के सामने अँधेरा छाने लगा, मेरी चेतना लुप्त होने लगी और 18 :: चन्दना

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