Book Title: Chahdhala 2 Author(s): Daulatram Kasliwal Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 9
________________ & सिद्धान्तसार के रहस्यभूत परमात्मा भाव जो आत्म . तत्व चैतन्य स्वरूप अनन्त धर्मात्मक एक अखड लू पिंड अनत धर्म स्वरुप आत्माराम जाना जाता है और उसको जानने पर ही पर पराय आत्म कल्याण & है, होता है. हम संसार चतुर्गति में गमन करने वाले जीव को अन्य अन्य अवस्था रूप परिणित होती ४ है, यही संसार है, यद्यपि यह जीव द्रव्य टंकोकिरण स्थिर रूप है, तो भी पर्याय से अथिर है अर्थात् प्ले पूर्व अवस्था को त्यागकर आगामो अवस्था को ग्रहण करना वही संसार स्वरुप है । इस संसार में यह & जोत्र अनादि काल से मलीन हुआ पुद्गल कर्मों से सझा हुआ मिथ्यात्व रागादि रूप कर्म सहित अशुद्ध विभाव विकार रूप परिणामों को पाता है और उस रागादि रूप विभाव परिणामों से पुद्गलीक द्रव्य कर्म जीव के प्रदेशों में आकर बंध को प्राप्त हो जाता है, और उसो कारण से रागाद विभाव परिणाम पुद्गलीक बंध के कारण रूप भाव कम है । अर्थात आत्मा के रागादि रूप अशुद्ध परिणाम जो हैं वह द्रव्य, कर्म के बंध के कारण हैं और रागादि विभाव परिणाम का कारण द्रव्य फर्म है तथा द्रव्य कर्म के उदय से भाव कम होता है इस नियम से दोनों कर्म का आप ही कर्ता है। 8 इसलिये ये चार गति स्वरूप संसार में यह जीव निश्चय से नाम कर्म को रचना है, इस हो कारण से यह संसारो जीव अपने अपने उपार्जित कर्म रूप परिणमन करते हुए आत्म स्वभाव को नहीं पाते ल हैं। जैसे जल का प्रभाव बन में अपने प्रदेशों और स्वाद में आम, नीम, चंदनावि वृक्ष रूप होकर & परिणमन करता है, वहां पर वह अल अपने द्रव्य स्वभाव और स्वाद स्वभाव को नहीं पाता, ऐसे ही यह जीव परिणमन के दोष से अनेक रूप हो जाता है, जैसे कि यह जीव निगोद में उत्पन्न होकर दुख भोगते हैं, उन दुःखों का यहां वर्णन करते हैं--Page Navigation
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