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भगवती सूत्र-- शा. १३ उ. २ देवों में दृष्टि
आलावएमु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य ण भण्णंति, सेसं तं चव । __१५ प्रश्न-से णूणं भंते ! कण्हलेस्से, णील० जाव मुक्कलेम्म भवित्ता कण्हलेम्सेसु देवेमु उबवज्जति ?
१५ उत्तर-हंता गोयमा ! एवं जहेव णेरइएमु पढमे उद्देसए तहेव भाणियध्वं णीललेसाए वि जहेव णेरड्याणं, जहा णील. लेस्साए एवं जाव पम्हलेस्सेमु, सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, णवरं लेस्सट्टा णेनु विमुझमाणेमु विमुझमाणेमु सुक्कलेस्सं परिणमइ, मुक्क लेस्मं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेमु उववजंति । से तेणट्टेणं जाव उववजंति ।
* सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति है
॥ तेरसमसए वीओ उद्देसो समत्तो ।। भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से, संख्येय योजन विस्तृत असुरकुमारावासों में सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं या मिश्रदृष्टि उत्पन्न होते हैं ?
१४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में तीन आलापक कहे, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिये और उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिये । इसी प्रकार यावत् ग्रेवेयक और अनुतर विमानों में भी कहना चाहिये।
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