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- भगती मूत्र-.": उ.
द्रायन नरेश का सालय
समणं भगवं महावीरं तिकखुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एव. मेयं भंते ! तहमेयं भंते : जाव से जहयं तुम्भे वयह त्ति कटु जं णवरं देवाणुप्पिया ! अभीडकुमारं रज्जे टोवेमि. तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि । 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध' । तएणं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट-तुट्टे ममणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसइ, वंदित्ता णमंमित्ता तमेव आभिसेवक हत्थिं दुरूहह, दुरूहित्ता समणस्म भगवओ महावीररस अंतियाओ मियवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिकग्वमित्ता जेणेव वीतीभये णयरे तेणेव पहारत्थ गमणाए ।
___ कटिन शब्दार्थ- पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-पूर्वरात्रापर रात्रकाल समय में ( रात्रि के पहले या पिछले पहर में अथवा रात्रि के मध्य-भाग में), अयमेयाम्वे-इम प्रकार का, अज्झथिए-संकल्प. समुप्पज्जित्था-समुत्पन्न हुआ।
.. भावार्थ-५-एक दिन उदायन राजा अपनी पौषधशाला में आये और बारहवें शतक के प्रथम उद्देशक में कथित शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे। रात्रि के पिछले पहर में धर्म-जागरण करते हुए उदायन राजा को इस प्रकार संकल्प यावत् उत्पन्न हुआ कि-वे ग्राम, आकर (खान) नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमख, पत्तन, आश्रम, संबाधं और सन्निवेश धन्य है, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं, वे राजा, सेठ तलवर यावत् सार्थवाह आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते है। यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरते हुए एवं एक ग्राम से
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