________________
भगवती सूत्र-श. १५ जिन-प्रलापा गोशालक का रोप
२४०१
जाव पगामेमाणे विहरइ । तपणं सा महतिमहालया महच परिसा जहा सिवे जाव पडिगया। तएणं सावत्थीए णयरीए सिंघारग० जाव बहुजणो अण्णमण्णम्स जाव परवेइ-'जं णं देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिंणप्पलावी जाव विहरई' तं मिन्छा । समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ-'एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तम्स मंखली णामं मखे पिया होत्था । तएणं तस्स मंखलिस्स एवं चेव तं सव्वं भाणियव्वं, जाव अजिणे जिणसदं पगासेमाणे विहग्इ, तं णो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे, जिणप्पलावी जाव विहरड, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्प. लावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणमहं पगासेमाणे विहरई'।
भावार्थ-९-अन्यदा किसी दिन गोशालक से ये छह दिशाचर आ कर मिले । यथा-शान इत्यादि (पूर्वोक्त वर्णन यावत् "यह जिन नहीं होते हुए भी अपने लिए 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है") हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक वास्तव में 'जिन' नहीं है, परन्तु 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है । गोशालक 'अजिन' है । तत्पश्चात् वह अत्यन्त बड़ी परिषद् ग्यारहवें शतक के नौवें उद्देशक में, शिव राजर्षि के चरित्र के अनुसार धर्मोपदेश सुन कर और वन्दनानमस्कार कर चली गई।
श्रावस्ती नगरी में शृंगाटक त्रिक मार्ग यावत् राजमार्गों में बहुत से मनुष्य इस प्रकार यावत् प्ररूपणा करने लगे--'हे देवानुप्रियों ! मंखलिपुत्र
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org