________________
भगवती मूत्र-स. १५ गोगालक का आगमन और दाम्भिक प्रलाप
२४१९
कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे, अहं णं उदाइणाम कुंडियायणीए, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स मगरगं विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्म सरीरगं अणुप्पविसामि गो० २ अणुप्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि जे वि आई आउसो कासवा ! अम्हं समयंसि केइ सिझिमु वा सिझंति वा सिज्झिम्संति वा सव्वे ते चउरासीइं महाकप्पसयसहस्साई, सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत्त सण्णिगम्भे, सत्त पउट्टपरिहारे, पंच कम्माणि सयसहस्साई सद्धिं च सहस्साई ञ्चसए तिण्णि य कम्मसे अणुपुव्वेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिणिवायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा।
कठिन शब्दार्थ-कासवा-काश्यप गोत्रीय, सुक्के-शुक्ल (पवित्र), पउट्टपरिहारएक शरीर छोड़ कर दूसरे को प्राप्त करना।
.... भावार्थ-१३-जब आनन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को, भगवान् की आज्ञा सुना रहे थे, इतने में ही गोशालक आजीविक संघ सहित हालाहला कुम्भारिन की दुकान से निकल कर, अत्यन्त रोष को धारण करता हुआ शीघ्र और त्वरित गति से कोष्ठक उद्यान में, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आया। श्रमण भगवान महावीर स्वामी से न अति दूर न अति निकट खड़ा रह कर उनसे इस प्रकार कहने लगा-“हे आयुष्यमन् ! काश्यप गोत्रीय ! मेरे विषय में तुम अच्छा कहते हो, हे आयुष्यमन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में ठीक कहते हो कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है। (परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिये कि) जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org