Book Title: Bhagvati Sutra Part 05
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 505
________________ २६२२ भगवती सूत्र-ग. १७ उ. ३ सवेगादि धर्म का अंतिम फल सेवणया, सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, जोगपञ्चक्खाणे, सरीरपच्चक्खाणे, कसायपञ्चक्खाणे, संभोगपञ्चरखाणे, उवहिपञ्चक्खाणे, भत्तपञ्चक्खाणे, खमा, विरागया, भावसच्चे, जोग. सच्चे, करणसच्चे, मणसमण्णाहरणया, वइसमण्णाहरणया. काय. समण्णाहरणया, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, णाणसंपण्णया, दंसणसंपण्णया, चरित्तसंपण्णया, वेदणअहियासणया, मारणंतियअहियासणया-एए णं भंते ! पया किं पञ्जवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो? १६ उत्तर-गोयमा ! संवेगे, णिव्येए जाव मारणंतियअहिया सणया-एए णं मिद्धिपजवसाणफला पण्णत्ता समणाउसो ! सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । जाव विहरइ * ॥ सत्तरसमे सए तईओ उद्देसो समत्तो ॥ ____ कठिन-शब्दार्थ-संवेगे-संवेग (मोक्ष को अभिलापा), णिवेए-निवद (मंसार एवं भोग की अरुचि), विउसमणया-कपाय की उपशांतता । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! संवेग, निर्वेद, गुरु-सार्मिक शुश्रूषा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, क्षमापना, श्रुत सहायता, व्युपशमना, भाव अप्रतिबद्धता, विनिवर्तना, विविक्त-शयनासन सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय संवर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय संवर, योग प्रत्याख्यान, शरीर प्रत्याख्यान, कषाय प्रत्याख्यान, सम्भोग प्रत्याख्यान, उपधि प्रत्याख्यान, भक्त प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भाव-सत्य, योग-सत्य, करणसत्य, मन समन्बाहरण, वचन समन्वाहरण, काय समन्वाहरण, क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक, ज्ञानसम्पन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदना अध्यासनता, मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल क्या है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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