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भगवता मूत्र--स. १६ उ. ४ लोक की आकृति
४६ उत्तर-हे गौतम ! जहां विग्रहकण्डक वक्रतायुक्त अवयव है, वहां लोक का विग्रहविग्रहिक भाग कहा गया है।
विवेचन-यह चौदह राजू, परिमाण लोक, कहीं बढ़ा हुआ है और कहीं घटा हुआ है। इस प्रकार की बद्धि और हानि से रहित भाग-बहसमभाग कहलाता है। इस रत्नप्रभापृथ्वी में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। ये सब से छोटे हैं। ऊपर के क्षुल्लक प्रतर ने प्रारंभ होकर ऊपर प्रतर वृद्धि होती है और नीने के क्षुल्लक प्रतर से नीचे की ओर प्रतर वृद्धि होती है। शेष प्रतरों की अपेक्षा यह प्रतर छोटे हैं। क्योंकि इनकी लम्बाई चौड़ाई एक राजू परिमाण है । ये दोनों प्रतर तिर्यग्-लोक मध्यवर्ती हैं।
. इस लोक का आकार पुरुप के गरीराका र माना है। कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के दोनों हाथों की कुहनियों का स्थान वक्र (टेढा) होता है । इसी प्रकार इस लोक में पांचवें ब्रह्मदेवलोक के कूर्पर (कुहनी स्थानीय) पास में लोक का वक्र-भाग है। इस वक्र-भाग को विग्रहकण्डक कहते है । अथवा जहाँ प्रदेशों की वृद्धि या हानि होने से वक्रता होती है, उसे भी विग्रहकण्डक कहते हैं । यह प्रायः लोकान्त में होते हैं ।
लोक की आकृति
४७ प्रश्न-किं संठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ?
४७ उत्तर-गोयमा ! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे जाव 'अंतं करेई'।
४८ प्रश्न-एयस्स णं भंते ! अहेलोयस्स तिरियलोयस्स, उड्ढलोयस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ?
४८ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उड्ढलोए असंखेजगुणे, अहेलोए विमेसाहिए।
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