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भगवती सूत्र-श. १३ उ. ६ मान्तर-निरन्तर उपपात-च्यवन
सौ पचपन करोड़ तीस लाख पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्र में तिच्छी जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर चालीस हजार योजन जाने पर चमरेन्द्र की चमरचंचा नामक राजधानी आती है, इत्यादि) दूसरे शतक के आठवें सभा उद्देशक में जो वक्तव्यता कही गई है, वह सम्पूर्ण कहनी चाहिये। विशेषता यह है कि तिगिच्छकट के उत्पात पर्वत, चमरचंचा नामक राजधानी, चरमचंचक नामक आवास पर्वत और दूसरे बहुत से इत्यादि, सब उसी प्रकार कहना चाहिये, यावत् तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन गाउ दो सौ अठाईस धनुष और कुछ विशेषाधिक साढ़े तेरह अंगुल चमरचंचा की परिधि है । उस चमरचंचा राजधानी से दक्षिण पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में छह सौ पचपन करोड़ पेंतीस लाख पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्र में तिर्छा जाने के बाद वहाँ असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का चमरचंच नामक आवास कहा गया है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई चौरासी हजार योजन है । उसकी परिधि दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ विशेषाधिक है । वह आवास एक प्राकार (प्रकोट) से चारों ओर से घिरा हुआ है । वह प्राकार ऊँचाई में एक सौ पचास योजन है । इस प्रकार चमरचञ्चा राजधानी की सारी वक्तव्यता यावत् 'चार प्रासाद पंक्तियाँ हैंतक, सभा छोड़कर कहना चाहिये।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र, असुरराज चमर 'चमरचञ्च' नामक आवास में रहता है ?
३ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न-हे भगवन् ! चमरेन्द्र, चमरचंच नाम के आवास में क्यों नहीं रहता ?
उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार मनुष्य-लोक में औपकारिक घर (प्रासादादि के पीठ तुल्य घर), बगीचे में बनाये हुए घर, नगर के पास बनाये हुए घर, नगर से निकलने वाले द्वार के पास बनाये हुए घर और जल के फव्वारे सहित घर होते हैं, वहाँ बहुत से पुरुष, स्त्रियां आदि बैठते हैं, सोते हैं इत्यादि
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