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भगवती सुत्र-१३ उ ४ वास्तिकायमय लोक..
आकाशास्तिकाय का सभी स्थान पर (एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक) उत्कृष्ट पद ही होता है, जघन्य पद नहीं, क्योंकि आकाश सभी जगह विद्यमान है ।
दस के उपरांत संख्या को गणना संख्यात में होती है। जैसे कि-बीस प्रदेशों का एक स्कन्ध, लोकान्त के एक प्रदेश पर रहा हुआ है, वह अम्क नय के अभिप्राय से बीस अवगाढ़ प्रदेशों से ऊपर या नीचे के बीम प्रदेशों से और दोनों ओर के दो प्रदेशों मे, इस प्रकार जघन्य पद में वयालीस प्रदगों में स्पष्ट होता है। उत्कृष्ट पद में निरुपचरित (वास्तविक) बीस अवगाढ़ प्रदेशों से, नीचे के बीस प्रदेशों से, ऊपर के बीस प्रदेशों से दोनों ओर (पूर्व और पश्चिम दिशा) के बीस-बीस प्रदेशों से तथा उत्तर और दक्षिण दिशा के एक-एक प्रदेश से, इस प्रकार कुल मिला कर एक सौ दो प्रदेशों से स्पष्ट होता है। ..
असंख्यात और अनन्त प्रदेशों की स्पर्शना के विषय में भी पूर्वोक्त नियम ही ममझना चाहिये। किन्तु अनन्त के विषय में यह विशेषता है कि जिस प्रकार जघन्य पद में ऊपर या नीचे के अवगाढ़ प्रदेश औपचारिक हैं, उसी प्रकार उत्कृष्ट पद के विषय में भी जानना चाहिये । क्योंकि अवगाह से निरुपचरित अनन्त आकाग-प्रदेश नहीं होते, असंख्य होते हैं।
. मूल पाठ में आकाशास्तिकाय की उत्कृष्ट स्पर्शना ही बताई हैं। इसमे चूर्णिकार के मत की ही आगमीयता स्पष्ट होती है । जघन्य स्पर्शना में दुगुने से दो अधिक एवं उत्कृष्ट स्पर्शना में पांच गुणा मे दो अधिक प्रदेशों की स्पर्शना भी चूर्णिकार के मत को ही पुष्ट करती है । टीकाकार के मतानुसार जो स्पर्शना बताई गई है, उसकी संघटना भी नहीं बैठती है । अतः चूर्णिकार का मत ही आगमीय प्रतीत होता है ।
अद्धा-समय की स्पर्शना के विषय में इस प्रकार समझना चाहिये-समय क्षेत्रवर्ती वर्तमान समय विशिष्ट परमाणु को यहाँ अद्धा-समय रूप से समझना चाहिये । अन्यथा धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से अद्धा-समय की स्पर्शना नहीं हो सकती । यहाँ जघन्य पद नहीं है, क्योंकि अद्धा-समय मनुष्य क्षेत्रवर्ती है। जघन्य पद तो लोकान्त में सम्भवित होता है और लोकान्त में काल नहीं है । अद्धा-समय की स्पर्शना सात प्रदेशों से होती है, क्योंकि अद्धा-समय विशिष्ट परमाणु द्रव्य, धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश में अवगाढ़ होता है और धर्मास्तिकाय के छह प्रदेश उसके छहों दिशाओं में होते हैं, इस प्रकार उसके सात प्रदेशों से स्पर्शना होती है । अद्धा-समय जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे एक प्रदेश पर भी अनंत होते हैं।
एक अद्धा-समय, पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से और अनन्त अद्धा-ममयों से
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