Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 9
________________ [७] भगवान महावीरकी निर्वाणप्राप्तिके बाद उनके अनेक अनुयायियोंन भी निज पर विवेक तथा भेद-विज्ञान प्राप्त कर स्वसंवेदन एवं आत्मचिंतनमें जीवन यापन किया, परन्तु वीरात् सं० ५८३ (विक्रमसं० २१३) तक साक्षात् ज्ञानियोंका सद्भाव रहनेके कारण साहित्यिक, सैद्धान्तिक, वैज्ञानिक आदि विषयोंको लेखबद्ध करनेकी विद्धानोंको आवश्यक्ता प्रतीत नहीं हुई। इसके पश्चात् तात्विक और चारित्रात्मक सिद्धान्त, जिसकी गुरु परम्परासे मौखिक शिक्षणकी पद्धति उस समय तक चली आ रही थी भावी संततिके हितार्थ पुस्तकारूढ़ किया गया। उन मूल शास्त्रकार प्रत्यक्ष ज्ञानियोंकी दूसरी तीसरी सन्ततिमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्य हुये जिन्होंने तात्विक सिद्धान्तको गुरु परिपाटीसे अध्ययन करके गूढ़ विषयोंका तत्कालीन प्रचलित भाषामें सरल और सुगम रूपसे अनेक प्राभृतोंमें निरूपण किया, अतः जिनेन्द्र प्रणीत आगमको लोकप्रिय, सरल और सुगम रूपसे अनेक प्राभृतोंमें निरूपण किया, अतः जिनेन्द्र प्रणीत आगमको लोकप्रिय, सुगम और व्यापक रूप देनका श्रेय आचार्यवरको ही प्राप्त है। इनकी रचनाओंके अतिरिक्त जो लेखबद्ध सैद्धान्तिक साहित्य उपलब्ध है वह प्रायः इनके उन्हीं अनुगत आचार्यों द्वारा निर्मित हुआ है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे इनकी ही शिप्यपरम्परामें हुये हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य जैसे. सिद्धान्त शास्त्रके प्रथम प्रणेता और जैन आगमके अपूर्व व्याख्याताके जीवनचरित्रका अभाव जैन जनताकी कृतघ्नताका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस महान अपराधसे स्वयं मुक्त होने और अपने समाजको

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