Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 75
________________ भगवान कुन्दकुन्दाचार्य । [५७ पुद्गल द्रव्यके परमाणुओं और उनके स्कंध आदिका कथन किया है, फिर धर्म अधर्म द्रव्योंका उदाहरण सहित वर्णन किया है, आकाश द्रव्यको सकाय और अकायको अपेक्षासे समझाया है और संक्षेपमें कालद्रव्यकी भी व्याख्या की है। तत्पश्चात् जीव, अजीव, आश्रव, बंध, सम्बर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्य पाप इन नौ पदार्थोंका क्रमशः विस्तारपूर्वक कथन किया है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रलायकी व्याख्या देकर इनको मोक्षप्राप्तिका साधन सिद्ध किया है। जीव और अजीवका परस्पर सम्बंध बताकर पुण्यको शुभ और 'पापको अशुभ परिणामरूप लिखा है । शुभ भावोंको शुभ कर्मोंके और अशुभ भावोंको अशुभ कमौके बंधका कारण बताया है। परन्तु इस शुभाशुभ कर्मबंधसे छूटनेके लिये शुभाशुभ दोनों प्रकारके भावोंको परित्याग करनेकी शिक्षा दी है। आचार्य कहते हैं कि यदि शुभाशुभ भावोंको त्याग कर शुद्धोपयोगके साथ तपस्या अर्थात् आत्ममनन किया जाय तो कौका अवश्य क्षय होजाता है। शुभाशुभ परिणामोंके परिणामसे नवीन कर्मबंध रुक जाता है और शुद्धोपयोगके द्वारा पूर्व संचित कर्मोंकी निर्जरा होजाती है। अतः आत्म-चिंतनमें संलग्नताका अंतिम और •अवश्यंभावी परिणाम मोक्षप्राप्ति है। ___ उस परमपद तथा अत्योत्कर्ष अवस्थाको प्राप्त होकर आत्मा, “अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख अर्थात् अनन्त चतुष्टयरूप निज़ स्वभावमें स्थित होजाता है। अनादिकालीन अपनी

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