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७६] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । चारित्र भी अकारथ है । स्वपरका बोध प्राप्त किये बिना मोक्षकी प्राप्ति भी नहीं हो सकती।
जिनप्रणीत शास्त्रोंका मननपूर्वक अध्ययन और वस्तुस्वभावका यथोचित विचार ही सम्यक् ध्यान है । इसीसे संयमका पालन होता है। जिनागमका अभ्यास किये बिना तपश्चरण करनेसे कुछ लाभ नहीं। जो मुनिदीक्षाधारी संसारी कार्यामें अनुरक्त, विषयोंके आधीन तथा आत्मस्वभावसे अचेत रहते हैं वह मिथ्यादृष्टि हैं।
पाणिपात्र ( दोनों हाथोंकी ओक) में शुद्ध और निर्दोष आहार लेनेवाले तथा उत्तम ध्यान और चारित्रको यत्नपूर्वक पालनेवाले मुनियोंमें सम्यक्दर्शनकी विशेषतासे ही उनकी विशेषता है।
बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्माका भेद जाने विना दुर्द्धर तप करना भी क्लेशमात्र है।
जो मनुष्य अपने शरीर सम्बन्धी चैतन्य तथा अचैतन्य पदार्थोंको आत्मरूप जानता है और राग द्वेष मोहादिक विभावोंको आत्मस्वभाव मानता है, इन्द्रियजन्य सुखोंमें सदा लीन रहता है वह वहिरात्मा है।
और जो मनुष्य शरीरादि संसारी वस्तुओंको आत्मासे भिन्न मानकर उनसे मोह और ममत्व नहीं करता, न इन्द्रियजनित सुखोंकी अभिलाषा करता है, बल्कि आत्मस्वभावके अनुभवमें लीन रहकर मोक्षके अनंत और अविनाशी सुखको प्राप्त करनेकी सदा भावना रखता है वह अन्तरात्मा है। ___ अतः प्रत्येक मन्यात्माका कर्तव्य है कि संसार परिभ्रमणके कारणभूत समस्त बहिरात्मभावोंका परित्याग करदे । और परम्परासे