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७८] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। मनःपर्यय विभाव ज्ञान है। ऐसे ही स्वभाव और विभावके भेदसे दर्शनोपयोग भी दो प्रकार है, केवल दर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है और चक्षु अचक्षु और अवधिदर्शन विभाव दर्शनोपयोग है ।
पर्याय स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष रूपसे दो प्रकार है। कर्मोकी उपाधिसे रहित सिद्धावस्था स्वभाव पर्याय है और कर्मजनित नर नारक 'पशु और देव पर्याय विभाव पर्याय हैं । द्रव्यार्थिक नयसे जीवात्मा इन 'पर्यायोंसे अलग है परन्तु पर्यायार्थिक नयसे उनसे अयुक्त है।
द्वितीय अजीवाधिकार (१८ गाथा) में पुद्गल द्रव्यके अणु और स्कंध दो भेद कहे हैं। पुद्गल चाहे अणु हो या स्कंधरूप, जीवास्मासे सर्वथा भिन्न है, तमिश्रित आत्मा अशुद्ध, विभावयुक्त और विकृतरूप है, फिर धर्म अधर्म आकाश और कालद्रव्योंके लक्षण और भेदोपभेद वर्णन किये हैं।
तृतीय शुद्ध भावनाधिकार (१८ गाथा) में मोक्षार्थी साधुको निरंतर इस प्रकार भावना करनेका उपदेश दिया है कि वह शुद्ध स्वरूप आत्मा मानापमान, हर्ष विषाद, बंध उदय, जन्म जरा, रोग मृत्यु, शोक भय, 'कुल जाति, योनि शरीर, समास मार्गणा, दंड द्वंद, राग द्वेष, शल्य मूढता, विषय कषाय, काम मोह, गोत्र वेद, संस्थान संहनन आदि समस्त विकारोंसे बिल्कुल रहित है, अतः कर्मजनित गुण पर्यायोंसे भिन्न आत्मा ही उपादेय है, शेष बाह्य तत्व हेय हैं। जैसे अष्ट गुण सहित सिद्धात्मा अविनाशी, निर्मल, लोकके अग्रभागमें विराजमान है। निश्चयनयसे समस्त संसारी जीवात्मा भी वैसे ही शुद्ध स्वरूप हैं। विपरीत अभिप्रायसे रहित तत्वश्रद्धान सम्यक्र