Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 100
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचाये। .. ...... .. . ....... . . vin विराजता है, जहां सुख दुख, पीडा, बाधा, जन्म मरण, निद्रा, तृषा, . क्षुधा, द्रव्यकर्म, नोकर्म, इन्द्रिय विषय, उपसर्ग, मोह, आश्चर्य, चिंता, ध्यानादि विकार नहीं रहते। आत्मा अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत आनंदमय सच्चिदानंद स्वरूप अविनाशी और निर्विकार अवस्थामें रहता है। इसी अवस्थाको निर्वाण कहते हैं। इसे प्राप्त करके आत्मा कृतकृत्य और सिद्ध होजाता है और अनंतचतुष्टयवान होता है। इसी अवस्था या परमपदका प्राप्त करना प्रत्येक आत्माका अतिम ध्येय है । लक्ष्य. पदकी प्राप्तिकी निरंतर भावना और परम ध्येय सिद्धस्वरूप परमात्माके गुण चिंतनमें लय होजाना शुद्धोपयोग है, जो वास्तवमें निर्वाण या सिद्धपदकी प्राप्तिका कारण है। - इति शुभम । -दरखशां।

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