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भगवान् कुन्दकुन्दाचाये।
ज्ञानावर्णादि अष्ट प्रकारके द्रव्यकर्म, औदारिक, वैक्रियक, आहारक शरीर यह तीन प्रकारके नो कर्म, मति श्रुत अवधि और मनःपर्यज्ञान जो पूर्णज्ञान स्वरूप आत्माके विभाव गुण हैं, और नर नारक तिर्थच देव चार व्यंजन पर्याय सिद्ध स्वरूप आत्माकी विभाव पर्याय हैं, इनसे रहित आत्मस्वरूपका ध्यान करना निश्चय आलोचना है ।
अष्टम निश्चय प्रायश्चित्ताधिकार (९ गाथा) में व्रत, समिति, शील और संयममें प्रवृत्त क्रोधादि विभावरूप भावोंको क्षय करनेकी भावनामें वर्तन, तथा आत्मिक गुणोंका चिंतन, अथवा आत्मप्रबोध प्राप्त करना निश्चयनयसे प्रायश्चित्त है। अतः कायादि पर द्रव्योंमें ममत्व भाव न रखकर और सफल विकल्पोंको त्यागकर आत्मध्यानमें तल्लीन होना ही सर्व दोषों और पापोंका निश्चयनयसे प्रायश्चित्त है।
नवम परमसमाधि अधिकार (१२ गाथा) में आचार्यने बताया है कि वीतरागभावसे वाचनिक क्रियाका त्याग करके आत्मचिंतन करना, संयम नियम और तपके द्वारा धर्मध्यानमें मग्न होना या पुण्य पापके कारण रागद्वेषको छोड़कर समभाव धारण करना, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्त्री पुरुष नपुंसक तीन वेद ऐसे नो-कषायोंको त्याग कर देना परमसमाधि है।
दशम परम भक्ति अधिकार (७ गाथा) में आचार्यने यह प्रतिपादन किया है कि संसार परिभ्रमणसे मुक्तिके कारणभूत रत्न"त्रयके प्रति दृढ़.भक्तिका होना ही परम भक्ति है। सिद्धात्माके गुणोंको
मेदोपभेद सहित जानकर उन गुणोंमें आत्माकी गाढ़ भक्तिका होना. तथा रागद्वेष विषय कषाय आदि विभावोंको छोड़कर निज भावोंमें
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