Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 97
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | [ ७९ www BAIL 41100 दर्शन और संशय मोह विभ्रमसे रहित हेयोपादेयका ज्ञान सम्यक् ज्ञान हैं। चतुर्थ व्यवहार चारित्राधिकार (१८ गाथा ) में यह बताया है कि जीवाजीवके भेद विज्ञानका अभ्यास करने से वीतराग मुनि ही सम्यक् चारित्रको प्राप्त होसकता है पंचम प्रतिक्रमणाधिकार ( १८ गाथा ) में चारित्रको दृढ़ कर - नेके लिये निश्चय प्रतिक्रमणका वर्णन किया है। संपूर्ण वाग्विलास ( वचन रचना) और रागद्वेष भावोंको त्यागकर शुद्धात्म स्वरूपका चिंतन करना, बिराधना ( पाप क्रिया ) को छोड़कर आराधना (आत्मक्यान) में लीन होना, उन्मार्ग से विमुख होकर जिन मार्गके सम्मुख रहना, माया मिथ्या निदान भावोंसे विरक्त होकर निशःल्य होजाना, आर्तरौद्र ध्यानको तजकर धर्म शुक्लध्यान में लीन होना, मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रको परित्याग कर सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी भावना करना प्रतिक्रमण है । अतः समस्त भावों और क्रियाओंसे विरक्त होकर आत्मध्यान ही निश्चयसे प्रतिक्रमण है, जो मोक्ष-प्राप्तिका वास्तविक साधन है । षष्ठम निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार (१२ गाथा) में उस व्यवहार 'प्रत्याख्यानका कथन नहीं है जो मुनिजन भोजनके पश्चात् आगेके लिये प्रतिदिन यथाशक्ति योग्यकाल पर्यंत आहारादिका त्याग करते हैं बल्कि इसमें निज भावोंको ग्रहण करनेके प्रयोजनसे समस्त परभावोंको परित्याग करना निश्चय प्रत्याख्यान बताया है । सप्तम निश्चयालोचनाधिकार (६ गाथा) में समता भावमय परिसे आत्मस्वरूपका अवलोकन करना 'आलोचनाका लक्षण कहां हैं

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