Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 77
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [५९ नहीं करता। अतः परिणाम विना द्रव्यकी कोई सत्ता नहीं और विना द्रव्यके परिणमन नहीं होता। __भावार्थ-द्रव्य जो गुण पर्याय सहित है उसीका अस्तित्व सिद्ध होसकता है । अतः गुणपर्यायकी ऐक्यता ही द्रव्यका लक्षण है। शुद्धोपयोग द्वारा आत्मा चार घातिया कौंका नाश करके स्वयंभू होजाता है। और तभी उसको अनंतज्ञान, अनंतवीर्य तथा अनंतसुखकी प्राप्ति होजाती है। सर्वज्ञावस्थामें शारीरिक सुख दुःख नहीं होता, प्रत्येक वस्तु उसके दृष्टिगोचर होजाती है। चूंकि उसका ज्ञान समग्र ब्रह्माण्डवर्ती समस्त ज्ञेय पदार्थों तक. फैल जाता है। इस अपेक्षासे सर्वज्ञात्मा, सर्वव्यापक भी होजाता है तथा विना किसी बाह्य साधनके सर्वज्ञके ज्ञानमें समस्त पदार्थ उनकी भूत भविष्यत् और वर्तमान पर्यायों सहित युगपत झलकने लगते हैं और सूक्ष्म तथा अविद्यमान पदार्थोंका भी उसको प्रत्यक्ष दर्शन होजाता है जिनका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान नहीं होसकता । संसारी आत्माओंकी भांति सर्वज्ञका आत्मा कर्मबंधके कारण लोभ मोहादिकमें लिप्त नहीं होता । पूर्ण ज्ञान होनेसे पूर्ण आनंदकी स्वयं प्राप्ति हो जाती है । इन्द्रियजन्य शारीरिक सुख वास्तवमें कोई सुख नहीं है । आत्मिक आनंद ही वास्तविक और अविनाशी सुख है । ज्ञान और सुखका परस्पर ऐसा अविनाभावी सम्बन्ध है जैसे सूर्यका तेज और उसकी उष्णता' परस्पर सम्बद्ध है। शुभोपयोग अर्थात् पंचपरमेष्ठिका ध्यान, स्वात्मचिंतन, ब्रता'भ्यास, और तपश्चरणादि परिणामोंका होना शुभ है, जिनके फलस्वरूफ

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