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६०] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। आत्मा देव और मनुष्य पर्यायोंमें नानाप्रकारके दीर्घकालीन सुख भोगता है, परन्तु यह सुख कोई वास्तविक और अविनाशी सुख नहीं है।
शुद्धोपयोग धारण करनेसे समस्त दुःखों और क्लशोंका स्वयं नाश हो जाता है। जो पूर्णत: अहतका स्वरूप जानता है वह अपने आत्माका म्वरूप भी जान लेता है, आत्मा और परमात्माका भ्रम उसके मनसे दूर हो जाता है। इस प्रांतिके मिट जानसे आत्मा अहंतावस्थाको प्राप्त होकर और सर्व कर्माका नाश करके मोक्षलाम कर लेता है । अतः आत्मा और परमात्माके विवेकसे ही सत्रा ज्ञान विकसित होता है।
विश्वके जितने द्रव्य हैं वे विभिन्न गुणपर्याय सहित सभी ज्ञय हैं । उत्पाद व्यय ध्रुवकी अपेक्षासे उनकी परिणति प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती है, अर्थात् जब एक अवस्थाका अंत होता है तो दूसरी अवस्था तत्क्षण उत्पन्न होजाती है। इसलिये प्रत्येक वस्तु अपने गुणपर्याय सहित स्वयं विद्यमान है।
द्रव्य दो प्रकारके हैं-चैतन और अचेतन । जीव चेतन्य ज्ञानमय है और अजीव या अचेतन ज्ञानशून्य है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच भेद अजीव द्रव्यके हैं। यह सब द्रव्य लोकाकाशमें हैं । अलोकाकाशमें केवल एक द्रव्य आकाश ही है अन्य और कोई द्रव्य नहीं है। कालद्रव्यमें प्रदेश नहीं है, शेष द्रव्य अनेकप्रदेशी हैं। इस हेतुसे वे अस्तिकाय कहलाते हैं। ___ लोक अनादि और अनंत है तथा द्रव्योंसे परिपूर्ण है। आत्मामें उनके जाननेकी शक्ति है परन्तु सशरीर आत्मा कर्मबंधयुक्त होनेके