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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
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(९) सूत्र प्राभृत
२७ गाथाओं द्वारा आचार्यने कहा है कि सूत्रों का विषय स्वयं श्री जिनेन्द्र विहित है । गणधरोंने उसे सिद्धांतका रूप दिया । गुरुसे शिष्यको और इसी परम्परासे आचार्यवरको भी इस विषयका ज्ञान प्राप्त हुआ है। जिसप्रकार सुई सूत्र ( तागा ) सहित खोई नहीं जाती इसी भांति मनुष्य भी सूत्र (शास्त्रज्ञान ) सहित होकर संसार में नहीं खोया जासकता अर्थात् पथभ्रष्ट नहीं हो सकता ।
सूत्रज्ञानी सम्यग्दृष्टिको ही हेयोपादेयका ज्ञान होता है, अंततः वह कर्मोंका नाश करके अविनाशी सुखको प्राप्त कर लेता है ।
आत्मिक ज्ञान और स्वसंवेदन विना मनुष्य आजन्म पाप कमाता है । वस्त्र रहित और पाणिपात्र मुनि ही मोक्षलाभका अधिकारी है । वही मुनि वंदनीय है जो आत्मध्यानी, पापक्रिया रहित, परिपहजित, और कर्मोंका नाश करनेको समर्थ है। अन्य मुनि चाहे दर्शन ज्ञान युक्त भी हो, वस्त्र धारण मात्रसे इच्छा रहित नहीं होता । नाम मात्रको भी परिग्रह रखना मुनिके लिये दोष है । दिनमें एकवार पाणिपात्रमें भोजन करना, यथाजात अवस्थामें रहना, कोई वस्तु ग्रहण न करना, स्वयं तिलतुप मात्र भी न लेना, वास्तविक मुनिधर्म है । यह निग्रंथ अवस्था ही सर्वोच्च है ।
स्त्री सर्वस्व त्याग करनेपर भी नग्न रहनेके योग्य नहीं, साड़ी मात्र तो वस्त्र ग्रहण करना उसके लिये अनिवार्य है । तथा उसकी योनि छाती और बगल में सूक्ष्म जीवोंकी निरंतर उत्पत्ति होती है, उसे मासिक धर्म होता है, उसका मन चंचल और अशुद्ध रहना
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