Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 85
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | [ ६७ ན ་་ ་ ་ ་ ་ ་་་་་། ་་་་་་ ་“་་་ ན་ ་ས ་ན་་་ ང་ས་ན་་་་་ ན་་་་ང་ S रहित ) नासादृष्टि सहित ध्यानस्थ वीतरागमय अवस्थाकी प्रवोधक प्रतिमा ही जिन प्रतिमा है । जो आगम निर्ग्रथ, ज्ञानमय, मोक्षमार्ग, सम्यग्दर्शन, सत्संयम, और आत्मगुणोंका परिचायक है वह दर्शन है । फूलमें सुगंधि तथा दुग्धमें घृतकी भांति ऐसे दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान तन्मय होता है । जो सूत्र ज्ञानसे युक्त, संयमसे शुद्ध, अतिशय वीतरागभावी आचार्य, कर्मोंको कमको क्षय करनेवाली दीक्षा और शिक्षा देते हैं वह जिनेन्द्र भगवानकी साक्षात् प्रतिबिम्ध है । ऐसे दृढ़ संयमी आचार्य इन्द्रियमुद्रा, कपायमुद्रा और ज्ञानमुद्रा से न्युक्त होकर जिनमुद्राको धारण कर लेते हैं अर्थात् इन्द्रियों और मनको च में करके छहों कायकी रक्षा करना इन्द्रिय संयम या इन्द्रिय मुद्रा है । इन्द्रिय मुद्राधारीकी विषयकषायमें प्रवृत्ति न होनेको कषाय मुद्रा कहते हैं और निकषाय संयमी मुनिकी अपने ज्ञानस्वरूपमें तल्लीनता ज्ञानमुद्रा है । अत: इन तीनों मुद्राओंसे युक्त आचार्यको साक्षात् मुद्रा कहा है । जैसे कोई बधिक बिना बाणके धनुषसे लक्ष्य ( निशाने ) को वेध नही सकता इसी प्रकार ज्ञान बिना चारित्र के अभ्यास से कोई मुनि आत्मलक्ष्य (मोक्ष) को नहीं पासकता । अतः वास्तविक ज्ञान वही है जिसके सद्भावसे मोक्षकी प्राप्ति होसकती है। और जब मोक्षावस्था जीवात्माका स्वभाव है तो ज्ञान भी आत्मा का स्वाभाविक गुण है । इस ज्ञान गुणके पूर्ण विकाससे ही आत्माके अर्थकी सिद्धि होती है । अतः आत्मीक ज्ञान ही आत्मार्थ ज्ञान है ।

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