Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 86
________________ KARMAANNI . . ܙܚ.ܙ... ܙ ܙ ܙܝܙ ܙܝܙ ܙܝ ६८] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । . जो पुनीत आत्मा संपूर्ण ज्ञानके विकाससे मोक्षके सन्निकट हो जाता है या मोक्ष प्राप्त कर लेता है वही विश्ववंद्य अहंतदेव है। दयामय शुद्ध धर्म, सम्यक्त्व, व्रत, संयम और ज्ञान यही पांच सच्चे तीर्थ हैं। कर्ममलसे आत्माको स्वच्छ करनेके लिये इन्हीं पांच तीर्थोंमें रत होना कार्यकारी और श्रेयस्कर है। जन्म, मरण और इसके कारणभृत कर्मोसे रहित, शारीरिक दुःखों और दोषोंसे वर्जित अनंत अतिशय युक्त अर्हतस्वरूप है, जो गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण, जीवस्थानसे जाना जाता है। जब कोई त्यागप्रिय व्यक्ति समस्त गृह, ग्राम, धन, धान्य, रूपा, सोना, शय्या, आसन, छत्र, चमर आदिको बाह्यरूपसे और इनके प्रति ममत्व भावको अन्तरङ्गसे परित्याग कर यथाजात नमावस्था ग्रहण कर लेता है, बाईस परीषहोंकी दृढ़ता एवं निर्विषादपूर्वक सहन करता है, किसी प्रकारके कषाय भावोंसे लिप्त नहीं होता, कोई पापारम्भ नहीं करता, शत्रु मित्र, कांच कंचन, वन प्रासाद, निंदा प्रशंसा, सुख दुःख, हानि लाभ आदिमें समभाव रखता है । शस्त्रायुध, पशु स्त्री आदिसे रहित होकर गुफा, उद्यान, खण्डहर खकोडरमें या गिरि शिखरपर ध्यानमग्न रहता है, हितमित वचन कहता है, चार हाथ भूमि आगेको देखकर धीरे२ चलता है उसका इस अवस्थाको ग्रहण करना प्रव्रज्या (जिनदीक्षा) है।

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