Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 89
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | [ ७१ आत्मा कर्म-मलसे लिप्त होता है और परद्रव्यसे पृथक् होजानेपर वह स्वयं परमात्मा होजाता है। जिसप्रकार हरा, नीला, पीला, लाल आदि डंख लगने से शुद्ध श्वेत मणि भी तद्रूप भासने लगती है इसी भांति शुभाशुभ कर्मों के संयोगसे आत्मा भी अपने शुद्ध स्वभावसे विकृत होकर अन्यरूप होजाता है । आत्मविवेकके लिये ध्यानकी आवश्यक्ता है । और ममत्वभाव आत्म विवेकका बाधक है । पर पदार्थोंसे मोह त्यागने पर ही आत्मज्ञान होता है । पंचमकालमें भी उन सम्यक्ती साधुओं को धर्मध्यान होता है जो आत्म स्वभावमें स्थित हैं । रत्नत्रयका निर्दोष पालन करनेवाले मनुष्य लौकान्तिक देव होकर अगले जन्ममें मुक्त हो सकते हैं । 106 जीवाजीवका विवेक ही सम्यग्ज्ञान है । वस्तु स्वरूपका जाननेवाला ही सम्यग्ज्ञानी है | अज्ञानी पुरुष अनेक भवमें उग्र तप करके जितने कर्मोंका क्षय करता है, ज्ञानी पुरुष तीन गुप्ति द्वारा उतने कर्माको अन्तर्मुहूर्तमें नष्ट कर देता है। अतः सम्यग्ज्ञानी ही तपस्या करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है । तात्पर्य यह है कि परद्रव्योंका मोह बंधका, और रागद्वेपसे रहित होकर आत्मगुण चिंतनमें लीन होना मोक्षका कारण है । (१३) लिंग प्राभृत । २२ गाथाओं में आचार्यवरने यह निर्दिष्ट किया है कि मुनिधर्मका पालन करनेसे ही मुनिलिंग ( मुनिवेष या मुनिमुद्रा ) शोभायमान है । केवल लिंग धारण करनेसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती ।

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