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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।
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(११) भाव प्राभृत |
इस रचनाका विषय भाव विशुद्धि है, जिसका निरूपण आचार्य
चरने १६३ गाथाओं में किया है ।
शुभ अशुभ और शुद्ध तीन प्रकार के भाव होते हैं । मुनियोंके लिये बिना भाव लिंगके द्रव्य लिंग कार्यकारी नहीं । मनकी शुद्धि, अशुद्धिसे ही वह पुण्यात्मा या पापात्मा होता है ।
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भावलिंगी मुनि अपने शरीर से भी मोह नहीं रखता, विषय कषायसे रहित होता है आत्मध्यायमें लीन रहता है, नममुद्राधारी होता है । अपने अभ्यंतरको शुद्ध किये बिना नग्नवेश बिल्कुल व्यर्थ है,
भावशुद्धि न होने अथवा अशुद्ध परिणामी होनेसे ही यह जीवात्मा अनादिकाल से संसार में भ्रमण कर रहा है, जिससे शारीरिक और मानसिक दुःख पाता है । भावोंकी विशुद्धता ही मोक्षका कारण है । पुण्यक्रिया, धर्माचरण, व्रत, शास्त्र स्वाध्याय और तत्वज्ञान शुद्ध परिगामके अभाव में बिल्कुल निरर्थक हैं ।
आत्मा के चैतन्य स्वभाव और ज्ञानमय स्वरूपका निरन्तर ध्यान करना योग्य है । आत्मा इन्द्रियोंके विषयोंसे नितांत अलग है । विशुद्ध भावोंसे व्रत तपादि द्वारा जब संसार के बीच कर्मोंको भस्म कर दिया जाता है तब आत्मा जन्म मरणसे छूट जाता है । कर्म रहित होकर आत्मा सर्वोच्च अवस्था प्राप्त कर लेता है तभी उसे शिव, परमेष्ठि, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुखी (ब्रह्मा) और बुद्ध आदि कहते हैं ।
विषय कषाय आदि कुभावोंको त्यागने से रत्नयत्रकी और रत्नत्रय सद्भावसे अमरपदकी प्राप्ति होती है । १२ प्रकार तप, १३