Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।। वरने स्वकृत बोधपाठकी गाथा ६१ में अपनेको श्री भद्रबाहुका शिष्य प्रतिपादित किया है: सहवियारो हुओ. भासा सुत्तसुजं जिणं कहियं। मो तह कहियं णायं, सीसेण भद्दबाहुस्स ।। ६१॥ अर्थ-जैसा जिनेन्द्र भगवानने उपदेश दिया है वैसा ही भाषासूत्रोंमें शब्द विकारको प्राप्त हुआ. और वैसा ही भवाहक शिष्य (प्राभूनकर्ता ) ने जाना और वर्णन किया । __अब देखना यह है कि उक्त गाथा वर्णित भद्रवाहुस्वामी प्रथम भद्रबाहु श्रुतकेवली हैं या द्वितीय भद्रबाहु हैं जो एकांग ज्ञानी थे,. और यह भी देखना है कि वास्तवमें यह आचार्यवर इन दोनोंमेंसे किसी भद्रबाहुके शिष्य थे या किसी अन्य भावसे उन्होंने ऐसा लिखा है। इसी बोधपाहुडकी गाथा ६२ स्वयं इस समस्याको अधिकांशमें स्पष्ट कर देती है: वारस अंग वियाणं, चउदस पूव्वं विफल विच्छरणं । सुय णाण भवाहु, गमयगुरु भयवउ जयउ ॥ ६२ ॥ अर्थ-बारह अंग और अधिक विस्तारवाले चौदह पूर्वक विशेष ज्ञाता श्रुतज्ञानी, गमकगुरु भद्रबाहु भगवान जयवंत हों। इन दोनों परस्पर सम्बद्ध गाथाओंपर साथ २ विचार करनेसे स्पष्टतः जाना जासकता है कि भगवान भद्रबाहु श्रुतकेवलीको ही आचार्यवरने अपना ज्ञानगुरु मानकर उनका जयघोष किया है-न कि एकांग ज्ञानी भद्रबाहु द्वितीयको, अतः यह आचार्य भद्रबाहु द्वितीयके

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101