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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।
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श्रुतकेवली जो उस समय से कई शताब्दि पूर्व विद्यमान थे, इनके
शिक्षा या दीक्षागुरु नहीं होसकते ।
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श्री देवसेनसूरिने दर्शनसार में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्तिका समय
वि० सं० १३६ दिया है, यथा:
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एकसये छत्तीसे, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स |
सोरट्ठे बलहीये, उप्पण्णो सेवडो संघो ||
हमारे चरित्रनायक आचार्यवरने अपने सूत्र पाहुडमें वस्त्रधारी मुनियों और स्त्रियोंके मुक्तिविधानादि श्वेताम्बरीय मुख्य सिद्धान्तोंका घोर विरोध किया है । इससे भी स्वतः सिद्ध होता है कि इन आचार्य चरका समय वि० सं० १३६ के बाद प्रवर्ता । अतः यह श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य नहीं माने जासकते ।
श्रवणवेल्गुलके शिलालेख नं - ४० और १०८ से, जिनका आवश्यक भाग ' पितृकुलादि " में उद्धृत किया है, यह विदित है कि यदि यह आचार्य चंद्रगुप्त मौर्यके वंशज थे अर्थात् उनकी वंशपरम्परामें हुये तो भी उन्होंने उनसे कुछ पीढ़ियों बाद जन्म धारण किया । अतः चन्द्रगुप्त सम्राट्से पीढ़ियों बाद होनेवाले उनके वंशज कुन्दकुन्दाचार्य, उस राजर्षि (चंद्रगुप्त) से दीर्घकाल पूर्व स्वर्गस्थ होजानेवाले भद्रबाहु श्रुतकेबलीके शिष्य कदापि नहीं होसकते । .
श्रुतावतारकी गाथा नं० १६१ में, जो “नामोल्लेख" में उद्धृत है स्पष्ट लिखा है कि पद्मनंदि ( कुन्दकुन्द ) आचार्य ने षट्खण्डागम महाशास्त्रको जिसका सम्पादन वि० सं० २१३ के बाद अर्थात्
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श्रुतकेवलियोंकी समय समाप्तिसे ५२१ वर्ष बाद आरम्भ हुआ;