Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | विगतमें थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य है । परन्तु इन आचार्यवरका समय निश्चय करनेके लिये विगतमें जानेकी आवश्यकता नहीं है । २२ ] 04111 वीरात् ६८३ अथवा विक्रम सं० २१३ के बाद अंग पूर्वके. कुछ अंशोंके ज्ञाता विनयधर, श्रीदत्त. शिवदत्त और अर्हदत्त यह चार आरातीय मुनि हुये और इनके बाद स्वामी अर्हद्वलि और माघनंदिने धांमृतकी वृष्टिसे भारतभूमिका सिंचन किया । स्वामी अर्हद्बलिने काल स्वभावसे रागद्वेष उत्पन्न होजानेकी आशंका करके उपस्थित मुनिसंघको नंदि, सेन, सिंह और देव ऐसे. चार संघों में विभक्त कर दिया । परन्तु इन विभिन्न संघों के मुनियों और आचार्यों में किसी धार्मिक आचार या तात्विक सिद्धांत विषयक कोई भेद नहीं था । अतः दिगंबराम्नाय पहिलेसे जैसी शुद्ध थी, इस विभक्ति के बाद भी वैसी ही शुद्ध और विशिष्ट रही । उसी समयके लगभग श्रीधरसेन और गुणधर आचार्य भी विद्यमान थे, जिन्हें क्रमशः आग्रायणी पूर्वोन्तर्गत पंचम वस्तुके चतुर्थ कर्म प्राभृतका और ज्ञानप्रवाद पूर्वान्तर्गत दशम वस्तुके तृतीय कषाय प्राभृतका पूर्ण बोध था । श्रीधरसेनाचार्यने अपनी शेष आयु अल्प जानकर इस दीर्घदृष्टि से कि उनके बाद कर्मप्राभृत श्रुतका न्युच्छेद न होजाय, स्वामी अर्हद्वलिके तीक्ष्ण बुद्धि दो विद्वान शिष्यों भूतबलि और पुष्पदंतको वेणाकतटके मुनिसंघसे बुलाया और व्याख्या करके कर्मप्राभृतकी उन्हें भले प्रकार शिक्षा दी । जिन्होंने कर्मप्राभृत श्रुतको संक्षिप्त करके जीवस्थान, क्षुल्लकबंध, बंधस्वामित्व, भाववेदना, कर्मवर्गणा और महाबंध नामसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101