Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 71
________________ arem............ ...... ..... m m m ___ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [५३ सूक्ष्मभाव जो बहिरंगमें उपजते हैं वह नोकर्मके परिणाम हैं। निश्चयनयसे इन भावोंका कर्ता पुद्गल है जीव नहीं। क्योंकि जीव और पुद्गलमें व्याप्य व्यापक सम्बंध नहीं है। जीव ज्ञानमय है और अपने ही स्वभावमें परिणमन करता है। यद्यपि पुद्गल जीवके परिणामोंके निमित्तसे कर्मरूप परिणमता है तथापि न तो जीव कर्मको ग्रहण करता है और न पुद्गल जीवके गुणको ग्रहण करता है। इन दोनोंमें परस्पर निमित्त कारणसे परिणमन होता है, परन्तु जिन्हें यह भेदविज्ञान नहीं है वह परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बंधको देखकर जीवको पुद्गल कर्मका कर्ता मानते हैं, जो व्यवहारनयसे ठीक भी है। शुद्धनयसे तो आत्मा शुद्ध निरञ्जन चैतन्य स्वरूप है परन्तु वह मोहवश अज्ञानी मिथ्यात्वी हुआ अवतरूप उपयोगसे कर्ता माना जाता है। अज्ञानतावश ही जीव परवस्तुमें ममत्व मानता तथा निजको पररूप जानता है। परन्तु ज्ञानी जीव निजपरका भेदज्ञान होनेके कारण पररूप परिणमन नहीं करता, अपने ज्ञानस्वभावमें परिणमता है। जैसे कुंभकार मृत्तिकासे घट बनाये तो घटमें मृत्तिका निज रससे वर्तेती है, कुंभकार अपने गुण द्रव्यको उसमें नहीं मिलाता, अतः घटका कर्ता वास्तवमें मृत्तिका है कुंभकार नहीं, इसी प्रकार जीव कपायवश जो कर्म करता है निश्चयनयसे उसका कर्ता कषायभाव है आत्मा नहीं, या जैसे सैनाके रणमें लड़नेपर उपचारनयसे लोग कहते हैं कि राजा युद्ध करता है, हालांकि राजा तो महलमें आनंद भोग रहा है, वैसे ही कपायजनित ज्ञानावर्णादिक भाव ही शुद्ध

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