Book Title: Bhagavana Kundakundacharya
Author(s): Bholanath Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 72
________________ Aravin a N. . ... . ................. ... ..made ५४] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । नयसे कर्मबंधके कर्ता हैं, आत्माको तो व्यवहारनयसे कर्ता माना जाता । है, शुद्धनयसे नहीं। शुभाशुभ भावोंसे पाप पुण्यरूप कर्म केवल सुखदुःखके कारणा हैं, मोक्षके कारण दोनों नहीं। उनमें हेय उपादेयका भाव रखना . अज्ञानता है। मोक्षपदकी प्राप्ति तो दोनोंके क्षय करनेसे ही हो सकती है । इसलिये पुण्य पापरूप दोनों प्रकारके कर्म और इनके कारणभृत शुभाशुभ परिणाम सत्र ही त्याज्य हैं। रागभावसे कर्मबन्ध होता है और वैरागभावसे कर्मबन्ध टूट जाता है। ज्ञानमय आत्माके परमार्थ स्वरूपको जाने बिना तप, व्रत, नियम, शील आदि पालनेसे मोक्षपद प्राप्त नहीं हो सकता। __ स्वभावतः आत्मा सर्व पदार्थोका ज्ञातादृष्टा है परन्तु अनादिकालसे वह कर्मरजसे आच्छादित हुआ संसारमें परिभ्रमण कर रहा है, अतः समस्त कर्मफलको नष्ट कर अपने निज स्वभावको विकसित करके "ही अविनाशी मोक्षपदको पा सकता है। भेदज्ञान द्वारा आत्माके ज्ञानमयं स्वरूपको जाने विना कर्माश्रत्रका सम्बर नहीं होता। जो जीवात्मा रागद्वेषादि विभावोंको निजभाक (स्वभाव) रूप जानता हैं उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती। और जो इन भावोंको अन्यरूप जानकर ज्ञान. स्वरूप शुद्धात्माको ध्याता है उसके कर्माश्रवका स्वयं सम्बर हो जाता है। विद्यमान मिथ्यात्व, अवत, अज्ञान और योगका अभाव होनेसे ही आश्रकार अभाव हो जाता है। . . . . . . . . . . . आश्रवके अभावसे कर्मोका, काँके अमावसे नोकर्मको, और

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